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एंटी वायरस है क्षमा

  एंटी वायरस है क्षमाभाव जैन परंपरा में दशलक्षण पर्व पर दशधर्मों की आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से आराधना करने के अनंतर आत्मा समस्त बुराइयों को दूर करके परम पवित्र और शुद्ध स्वरूप प्रगट कर लेती है तब मनुष्य अंदर से इतना भीग जाता है कि उसे अपने पूर्व कृत अपराधों का बोध होने लगता है । अपनी भूलें एक एक कर याद आने लगती हैं । लेकिन अब वह कर क्या सकता है ? काल के पूर्व में जाकर उनका संशोधन करना तो अब उसके वश में नहीं है । अब इन अपराधों का बोझ लेकर वह जी भी तो नहीं सकता । जो हुआ सो हुआ - लेकिन अब क्या करें ? कैसे अपने अपराधों की पुरानी स्मृतियां मिटा सकूं जो मेरी वर्तमान शांति में खलल डालती हैं । ऐसी स्थिति में तीर्थंकर भगवान् महावीर ने एक सुंदर आध्यात्मिक समाधान बतलाया - "पडिक्कमणं " (प्रतिक्रमण)   अर्थात् जो पूर्व में तुमने अपनी मर्यादा का अतिक्रमण किया था उसकी स्वयं आलोचना करो और वापस अपने स्वभाव में आ जाओ । यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो , कोई दूसरा नहीं । प्रतिक्रमण करके तुम अपनी ही अदालत में स्वयं बरी हो सकते हो | तुम उन अपराधों को दुबारा नहीं करोगे ऐसा नियम

Lord Mahaveera was a towering personality

Lord Mahaveera was a towering personality - Anekant Jain  Jainism is one of the oldest living religions in India. Anciently Jainism used to be called Śraman-dharma. Antiquity of Jainism goes back to the Pre- historic period of Indian culture. We find references of Vratya and Arhats in Rigveda and Atharvaveda, the Oldest text of the Indian literature.  They were also known as sramanas in the Upanishadic period. We find citation of some Jaina Teerathankaras such as Risabhadev, Ajitanath, and Arishtanemi in them. It is a certain proof that Jainism in its oldest form as Vratya tradition was prevalent at the time of the composition of Vedas hence its antiquity goes back to the Pre- Vedic period.  Secondly, in Mohan jo Daro and Harappa, some seals of meditating yogis have been found, which show that the tradition of performing meditation and yoga was much earlier in the Indian culture. In these earlier days, Present Jainism was known as a Vratya-Dharma, Aarhat-dharma, and Nirgran

इस्लाम और जैनधर्म

  इस्लाम और जैनधर्म                                                                                    प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली   भारत सदाकाल से अहिंसा , शाकाहार , समन्वय और सदाचार का हिमायती रहा है , उसकी कोशित रही है कि सभी जीव सुख से रहें ,  जिओ और जीने दो - जैनधर्म का मूलमंत्र है।   जैनधर्म ने अपने इस उदारवादी सिद्धान्तों से मुल्क के तथा विदेशी मुल्को के हर मजहब और तबके को प्रभावित किया है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका   ‘ विश्ववाणी ’  के यशस्वी संपादक पूर्व राज्यपाल तथा   इतिहास विशेषज्ञ डॉ . विशम्बरनाथ पाण्डेय   ने अपने एक निबन्ध ‘ अहिंसक परम्परा ’ में इस बात का जिक्र किया है। वे लिखते हैं कि - इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है , उनसे यह स्पष्ट है कि ईस्वी की पहली शताब्दी में और उसके बाद के   १००० वर्षों   तक जैनधर्म मध्य - पूर्व के देशों में किसी न किसी रूप में यहूदी , ईसाई तथा इस्लाम को प्रभावित करता रहा है। प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेखक वान व्रेमर के अनुसार   ‘ मध्य - पूर्व ’ में प्रचलित ‘ समानिया ’ संप्रदाय ‘ श्रमण ’ शब्द का अपभंरश है इतिहास लेखक जी

सूफी दर्शन और अहिंसा

  सूफी दर्शन और अहिंसा                                                                                          प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली   इस्लामधर्म के अन्तर्गत ही सूफी संप्रदाय भी विकसित हुआ है। सुफियों का मानना है कि   मुहम्मदसाहब   को दो प्रकार के ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुए थे - एक ज्ञान को उन्होंने कुरान के द्वारा व्यक्त किया और दूसरा ज्ञान , उन्होंने अपने ह्रदय में धारण किया। कुरान का ज्ञान , विश्व के सभी व्यक्तियों के लिए प्रसारित किया गया , जिससे वे सद्ज्ञान के द्वारा अपने जीवन को पावन बनायें।   दूसरा ज्ञान ,   उन्होंने अपने कुछ प्रमुख शिष्यों को ही प्रदान किया। वह ज्ञान अत्यन्त रहस्यमय था , वही सूफीदर्शन कहलाया। कुरान का किताबी ज्ञान तो   ‘ इल्म - ए - शाफीन ’  और हार्दिक ज्ञान ‘ इल्म - ए - सिन ’ कहलाता है। सूफीदर्शन का रहस्य है - परमात्मा - सम्बन्धी सत्य का परिज्ञान करना।   परमात्म - तत्त्व की उपलब्धि के लिए सांसारिक वस्तुओं का परित्याग करना।   जब परमात्म - तत्त्व की अन्वेषणा ही सूफियों का लक्ष्य रहा है तो हिंसा - अहिंसा का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। हिंसा -