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अतिवादी होने से भी बचें जैन(प्रकरण : श्री सम्मेद शिखर जी)





अतिवादी होने से भी बचें जैन


एक बात है जो किस तरह कही जाय समझ नहीं आ रहा । क्यों कि हम लोग उभय अतिवाद के शिकार हैं । 

वर्तमान में 
श्री सम्मेद शिखर जी प्रकरण में आधे से अधिक जैन वहाँ की इस स्थिति का जिम्मेदार स्वयं जैनों को ठहराने में पूरी  ताकत लगा कर महौल को हल्का करने की भी कोशिश कर रहे हैं । 

इसमें भी अधिकांश वे लोग भी हैं जिन्हें स्वयं सारी सुविधाएं चाहिए और दूसरों को त्याग तपस्या के उपदेश दे रहे हैं । 

ये वैसे समाधान बतला कर स्वयं को धन्य समझ रहे हैं जो अशक्य अनुष्ठान होता है । 

जैसे - 

1.यदि देश के सभी नागरिक अपराध छोड़ दें तो पुलिस की आवश्यकता ही न पड़े ।

2. यदि सभी लोग बहुत साफ सफाई से रहें तो मच्छर पैदा ही न हों ।

3.यदि सभी लोग ब्रह्मचर्य का पालन करें तो जनसंख्या बढ़े ही नहीं ।

यदि ऐसा हो तो वैसा हो .... आदि आदि काल्पनिक ख्याली पुलाव पका कर आप अपना पेट भर लेते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं ।

इस तरह के आलसी लोग जिन्हें सिर्फ बातें बनाना और अति आदर्श की वे बातें करना आता है जो वास्तव में यथार्थ में संभव ही नहीं है । वे ऐसी बातें करके मधुर भी बन जाते हैं और असली समाधान करने के पुरुषार्थ से भी बच जाते हैं। 

मुझे ऐसा लगता है कि कुछ ऐसे ही समाधान हमारे रजाई में दुबके कुछ विचारक व्हाट्सएप्प वीर भी बता रहे हैं ।  

*यदि सभी जैन पूरे पर्वत की वंदना के समय नींबू पानी भी न पिएं,उपवास रखें और इस पवित्र पर्वत पर मल मूत्र विसर्जन भी न करें , पैदल चलें - डोली भी न करें तो सभी समस्या का समाधान हो सकता है ।*

इस तरह के समाधान कुछ महापुरुष निरंतर प्रेषित कर रहे हैं जो व्यावहारिक धरातल पर इसलिए संभव नहीं हैं कि यदि ऐसे कड़े और अव्यवहारिक नियम बना दिये जायें तो जितने वंदना करने जाते हैं उसके 10 प्रतिशत भी नहीं बचेंगे और यह शिखर जी की समस्या गिरनार से भी ज्यादा बढ़ जाएगी ।

भक्त श्रावक सभी प्रकार के होते हैं,लोग यथा शक्ति अपनी क्षमता के अनुसार यात्राएं करते हैं । उन्हें इस लंबी यात्रा में कम ज्यादा सुविधाओं की भी आवश्यकता पड़ती ही है ।जिन्हें आवश्यकता नहीं है वे सुविधा नहीं भी लेते हैं । 

ऐसे भी श्रावक हैं जो पूरी वंदना में कहीं बैठते भी नहीं हैं और पानी भी नहीं पीते हैं,यह उनकी उत्कृष्ट साधना है - लेकिन जो ऐसा करते हैं उन्हें आप पापी और सारी समस्याओं का जिम्मेदार ठहराने लग जाएं तो अति हो जाएगी । 

फिर बच्चे ,बुजुर्ग, रोगी अशक्त आदि श्रावक चाहते हुए भी वंदना को जाएंगे ही नहीं । 

यदि समाज संस्था द्वारा ही स्थान स्थान पर शुद्ध सात्विक पदार्थ उपलब्ध हों , अन्य सुविधाएं भी हों तो श्रावक मजबूरी में उनकी दुकानों से चीजें न लें ,जहाँ चिप्स,कुरकुरे,कोल्डड्रिंक आदि अशुद्ध चीजें भी सहज उपलब्ध हो जाती हैं। 

खुद को समस्या का मूल कहना छोड़िए । ये कानून की लड़ाई है । यदि ये पर्यटन क्षेत्र बन गया तो आप पालते रहना अपने नियम और देते रहना उपदेश । 

होटल और रेस्टोरेंट खुलेंगे ,जब अन्य लोग साधना और पूजा को नहीं ,हनीमून,पिकनिक और सैर सपाटे को आएंगे तो आपके बच्चे भी आएंगे और इन्हीं होटलों में रुकेंगे ,धर्मशालाओं में नहीं । 

आपकी आंखों के सामने वो मंजर होगा जिसे आप भुगतने के लिए मजबूर होंगे ,क्यों कि उनके पास कानूनी अधिकार होंगे । 

आप आपस में लड़ते रहना ,वहाँ अन्य धर्मावलंबियों के धर्मायतन विकसित होंगें जो लाखों की संख्या में जूते चप्पल पहनकर ,खाते पीते यात्राएं करेंगे और आपके इक्के दुक्के यात्री पिटेंगे । जैसे गिरनार और पावागढ़ में स्थिति है कि आपकी औकात तलहटी तक ही रह जायेगी।

इसलिए अतिरेक से बचें ,अभी यह सोचें कि इस तरह का नोटिफिकेशन रद्द हो और आगे से किसी की इस तरह की हिम्मत न हो । 

अपने आंदोलन को सही दिशा भी देनी होगी । हमें समझना होगा कि वो किसान आंदोलन के आगे भी नहीं झुके और किसान जैसे आंदोलन करने की हमारी सामर्थ्य नहीं है । जैनों को समझना होगा कि लगातार सोशल मीडिया पर सरकारों को अशिष्ट भाषा में ललकारने से ,स्थानीय जनजातियों को विरोधी बनाने से समस्या और बढ़ेगी ।

सरकारें वोट प्रमाण को प्रमाण मानती हैं ,आगम प्रमाण को नहीं । अतः स्थानीय लोगों के भीतर यह विश्वास कायम करना बहुत आवश्यक है कि हम यह जो मांग कर रहे हैं वो उनके लिए भी हितकारी है ,हालांकि कुछ स्थानीय नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसे अहितकारी बताने का प्रयास अवश्य करेंगें । 


 समस्या का समाधान तो करना पड़ेगा लेकिन शिष्टाचार पूर्वक संघर्ष करके । लड़ाई से ज्यादा मैनेजमेंट ज्यादा फलदाई होगा । इतिहास गवाह है कि जैनों ने मुगल काल में भी धर्म और तीर्थ बचाये हैं लेकिन लड़कर नहीं ,चतुराई पूर्वक मैनेज करके ।

पहले अपना अस्तित्त्व बचाएं और समस्या का सही समाधान बताएं ,कोरे आदर्श बता कर मुद्दे से न खुद भटकें और न दूसरों को भटकाये ।

यदि अब भी न संभले तो मिट जाएंगे खुद ही 
दास्तां तक भी न होगी हमारी दास्तानों में


प्रो अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली

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