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फ़रवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

युवा प्रोफेशनल होकर भी कैसे करें धर्म और समाज सेवा ?

युवा प्रोफेशनल होकर भी कैसे करें धर्म और समाज सेवा ? आज शिक्षा का विकास बहुत हो गया है .ज्ञान के इस विकास ने रोजगार और समृद्धि के नए द्वार खोल दिए हैं.निश्चित रूप से ज्ञान विज्...

अनेक भाषाओँ की स्तुतियों में गोमटेश

जैन विश्व विद्यालय क्यों और कैसे ? एक परिकल्पना

जैन विश्व विद्यालय क्यों और कैसे ? एक परिकल्पना (सन २००५ में स्याद्वाद महाविद्यालय की स्वर्ण जयंती स्मारिका में प्रकाशित आलेख ) संलग्न लेख में 'जैन विश्वविद्यालय क्यों और कैसे ? एक परिकल्पना के माध्यम से उस तरफ ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है जिसकी वास्तव में आवश्यकता है ।पढ़ने के लिए इस लिंक पर भी क्लिक करें । https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1613603842020641&id=399900320057672

मीडिया मिथ्यात्व से बचें - डॉ अनेकान्त कुमार जैन

मीडिया मिथ्यात्व से बचें ................................. - डॉ अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली,drakjain2016@gmail.com एक प्रश्न आया कि मोबाइल पर परमेष्ठी आदि के चित्र को डिलीट करने से पाप होता है अथवा नहीं ? 1. सर्व प्रथम अच्छा तो यह ही है कि पंच परमेष्ठी के चित्र आदि सोशल मीडिया पर न भेजे जाएं । 2.सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रयप्रभावेन आत्मनः प्रकाशनं प्रभावनम्‌ । - सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशमान करना प्रभावना है । बाकी सोशल मीडिया आदि अन्य प्रभावना के कार्य उपचार से ही हैं । वास्तविक प्रभावना नहीं है । 3. मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि सोशल मीडिया पर परमेष्ठी के चित्र आदि भेजने से न पुण्य होता है न मोबाइल से इन्हें डिलीट करने से पाप । 4.अन्यथा भेजने वाला पुण्य के लोभ में भेजता रहेगा और हम पाप के डर से कब तक मेमोरी कार्ड बदलते रहेंगे । 5. चित्र आदि की उपचार विनय ही होती है ,हो पाती है ।वह वास्तविक विनय नहीं है । 6.फिर कल को पारस और जिनवाणी आदि चैनल वाले भी कहने लगेंगे कि यदि आपने हमारा चैनल बदल कर न्यूज़ या सीरियल का चैनल लगाया तो प...

आधुनिक संदर्भ में ‘सामायिक’ की उपादेयता

आधुनिक संदर्भ में ‘ सामायिक’  की उपादेयता ' सामायिक’  जैनधर्म की एक मौलिक अवधारणा है जिसमें संपूर्ण जैन दर्शन का सार समाहित है। यदि यह पूछा जाए कि एक शब्द में भगवान् महावीर का धर्म क्या है तो इसका उत्तर होगा—‘ सामायिक’ । प्राचीन काल से ही ही ‘ सामायिक’  करने की परम्परा संपूर्ण जैन समाज में चली आ रही है। दिगम्बर हो या श्वेताम्बर; गृहस्थ हो या मुनि  सामायिक  का महत्त्व प्रत्येक स्थल पर है। मुनियों के छह आवश्यकों में ‘ सामायिक’  प्रथम आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘‘समणो समसुह दुक्खो’ (प्रवचनसार गाथा १/४ कहकर समण का लक्षण ही सुख और दु:ख में समभाव रहने वाला किया है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में समण का लक्षण करते हुए, अपराजितसूरि ने कहा— ‘समणो समानमणो समणस्स भावो सामण्णं क्वचिदप्यनगुगतरागद्वेषता समता सामणशब्देनोच्यते। अथवा सामण्णं समात।’ अर्थात्  ‘जिनका मन सम है वह समण तथा समण का भाव ‘सामण्णं’  (श्रामण्य) है। किसी भी वस्तु में राग—द्वेष का अभाव रूप समता ‘सामण्णं’ शब्द से कही जाती है। अथवा सामण्णं को समात कहते हैं। मात्र मुनि ही न...

अहिंसा, जैनधर्म और इस्लाम -- डॉ. अनेकान्त कुमार जैन

अहिंसा, जैनधर्म और इस्लाम -डॉ. अनेकान्त कुमार जैन इस्लाम अरबी भाषा का शब्द है।  मुहम्मद अली की पुस्तक 'Religion of Islam'  में इस शब्द की व्याख्या बताई गई है।  इस्लाम शब्द का अर्थ है- ‘शान्ति में प्रवेश करना’।   अतः मुस्लिम व्यक्ति वह है, जो ‘परमात्मा पर विश्वास और मनुष्यमात्र के साथ पूर्ण शांति का संबन्ध’ रखता हो। इस्लाम शब्द का लाक्षणिक अर्थ होगा- वह धर्म, जिसके द्वारा मनुष्य भगवान की शरण लेता है और मनुष्यों के प्रति अहिंसा एवं प्रेम का व्यवहार करता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में इस्लामधर्म की विशेषताओं पर व्यापक प्रकाश डाला है। इस्लाम के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब माने जाते हैं, जिनका जन्म  अरब देश के मक्का शहर में सन् ५७० ई. में हुआ था और मृत्यु सन् ६३२ ई. में हुई।   इस्लामधर्म के मूल कुरान, सुन्नत और हदीस नामक ग्रन्थ हैं। कुरान वह ग्रन्थ है, जिसमें मुहम्मद साहब के पास खुदा के द्वारा भेजे गये संदेश संकलित हैं। सुन्नत वह है, जिसमें मुहम्मद साहब के कार्यों का उल्लेख है और हदीस वह कि...

नासूर हैं उपाधियों की व्याधियाँ

सादर प्रकाशनार्थ *नासूर हैं उपाधियों की व्याधियाँ* एक और रोग नासूर हो चला है,वह है उपाधियों का ।आज लोग अपने  व्यक्तित्व और काबलियत की कमी की पूर्ति इन खुद ही जड़े हुए शाब्दिक तमगों को जबरजस्ती या खरीदकर या जुगाड़ करके अपने नाम के साथ जोड़ने में मान रहे हैं। कैसी नादानी या बेवकूफी है कि हम इस दुर्लभ मनुष्य जन्म का उपयोग अपने क्षणिक नाम और भ्रामक उपाधियों के जाल में उलझ कर अपना आत्म विनाश कर रहे हैं ।कभी कभी तो उपाधियों का इतना बड़ा मायाजाल खड़ा कर देते हैं कि मूल नाम स्वयं में अनुसंधेय हो जाता है कि आखिर वह है कौन सा ? गृहस्थों, पंडितों या अन्य संसारी के लिए उचित न होते हुए भी यह उतना बड़ा अपराध नहीं प्रतिभासित होता जितना संसार से निवृत्त,मोक्ष मार्ग में संलग्न वीतरागी साधु के लिए होता है। क्या साथ ले जाना है ? नाम ,शरीर सब यहीं धरा रह जाना है।फिर भी हम अपने विराट आत्म वैभव को विस्मृत कर के किस नाम रुप के जड़ संसार में डूब कर अपना और धर्म दोनों का पतन किये जा रहे हैं  ? जिन्हें भाग्य से संसार का सर्वोच्च शिखर जैसा परमेष्ठी पद "साधु" /मुनि " /उपाध्याय/ आचार्य पद प्...