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आधुनिक युग में श्रावकाचार : परिवर्तन सोच का

  आधुनिक युग में श्रावकाचार  : परिवर्तन सोच का हर धर्म या दर्शन के साथ उसकी आचार मीमांसा भी किसी न किसी रूप में प्रकट होती है।कोई भी धर्म या दर्शन समाज से पृथक होकर नहीं रह सकता। कोई भी समाज बिना आचार-मीमांसा के सभ्य नहीं हो सकता , इसलिए यह जरूरी समझा गया कि प्रत्येक धर्म-दर्शन व्यक्ति और समाज को एक आचार मीमांसा दे । सामाजिक व्यवस्था के संचालन के लिए तो यह जरूरी था ही साथ ही धर्म-दर्शन के मुख्य उद्देश्य मोक्ष के लिए भी अत्यन्त आवश्यक था । इस संदर्भ में जैन धर्म- दर्शन ने भी एक सशक्त आचार व्यवस्था व्यक्ति और समाज को दी। मूलत: निवृत्ति प्रधान धर्म होने के नाते जैन धर्म-दर्शन के सामने यह समस्या तो थी ही कि जिन सांसारिक दु:खों से निवृत्ति का उपाय बताने का वह यत्न कर रहे हैं उसी संसार और समाज की सुव्यवस्था के लिए कौन सी आचार-व्यवस्था दी जाये जो मुक्ति मार्ग में बाधक भी न हो और सामाजिक रीति-नीतियों और सभ्यताओं का सुसंचालन भी ढंग से चलता रहे । जैन आचार की वैचारिक पृष्ठभूमि - निश्चित रूप से जैन दार्शनिक ऐसी आचार व्यवस्था को जन्म नहीं दे सकते थे जिससे संसार बढ़े , प्रत्युत वे सं

ये कैसा अनेकान्त ?

मैंने जो भी पढ़ा खुद को और खुद के पक्ष को पुष्ट करने के लिए पढ़ा तुम्हें पढ़कर भी यही किया तुम्हें तुम्हारे पक्ष को कभी समझने का प्रयास भी नहीं किया तुम्हें पढ़ने का पुरुषार्थ उसके पीछे बैठा मेरा स्वार्थ कि तुम्हें कर सकूँ असिद्ध ताकि मैं हो सकूँ स्वतः सिद्ध मेरा स्वार्थी एकान्त फिर भी कहलाता अनेकान्त - ©कुमार अनेकान्त 7/12/2016