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तीर्थों की रक्षा हेतु उपाय

तीर्थों की रक्षा हेतु  उपाय 1.वर्तमान में हम देख रहे हैं कि वक्त सबका आता है ।जैसे पहले इनका था,फिर उनका आया अब इनका फिर से आया है ।  2. जब वक्त एक पक्ष का रहता है तब वे अपने बाहुबल,शासन और स्व निर्मित कानून के बल पर इतर धर्म के धर्म तीर्थ स्थल को या तो पूरा ध्वस्त कर देते हैं या उस पर कब्जा कर लेते हैं ।  3.जब तक तीर्थ हमारे हक में रहता है तब तक हम सिर्फ पूजा भक्ति में डूबे रहते हैं और बिना डरे और विचारे इतर धर्म में प्रयुक्त प्रतीकों , शब्दों ,चिन्हों के प्रयोग बिना किसी संकोच के करते हैं और समन्वय उदारता का परिचय देते रहते हैं ।  4.किन्तु समय बदलते देर नहीं लगती । राजा का सहयोग, संख्या बल , अंध श्रद्धा और बाहुबल सारे कानून पर भारी पड़ता है । हमारी सत्ता,संख्या कम होते ही हमारे ही सामने हमारे धर्म स्थल ,प्रतीक आदि हड़प लिए जाते हैं , अन्य धर्म में तब्दील कर दिए जाते हैंऔर हम कुछ कर नहीं पाते ।  5.किन्तु सैकड़ों हज़ारों साल बाद जब समय बदलता है और हमारे हाथ में सत्ता और संख्या आती है तो अदालतें हमसे सबूत मांगती हैं तब भी यदि सबूतों में इतर धर्म के प्रतीक , शब्द और चिन्ह मिलते हैं तब हमें अ

कुतुबमीनार :सूर्यस्तम्भ ,सूर्यमेरु या सुमेरु?

(इस लेख को कोई भी समाचार पत्र,पत्र पत्रिका,वेबसाइट ,ब्लॉग, आदि बिना किसी फेर बदल के यथावत मूल लेखक के नाम के साथ प्रकाशित कर सकते हैं ) सादर प्रकाशनार्थ  कुतुबमीनार :सूर्यस्तम्भ ,सूर्यमेरु ,सालु या सुमेरु ? प्रो अनेकान्त जैन,नई दिल्ली वर्तमान में कुतुबमीनार एक चर्चा का विषय बना हुआ है ।  लगभग एक वर्ष पहले नेशनल मोन्यूमेंट ऑथोरिटी ऑफ इंडिया , भारत सरकार द्वारा दिल्ली के सम्राट अनंगपाल पर आधारित नेशनल सेमिनार में मैंने कुतुबमीनार को केंद्र में रखते हुए , जैन कवि बुध श्रीधर की अपभ्रंश रचना पार्श्वनाथ चरित के आधार पर इस परिसर का साक्षात निरीक्षण  किया था और कई फ़ोटो ग्राफ्स के आधार पर अपना शोधपत्र वहां प्रस्तुत किया और वहां उपस्थित सभी इतिहासकारों, पुरातत्त्ववेत्ताओं और सांसदों ,मंत्रियों के मध्य कुतुबमीनार के जैन इतिहास और सांस्कृतिक महत्त्व को समझाया था ।  निश्चित रूप से कुतुब परिसर भारतीय संस्कृति का एक बहुत बड़ा केंद्र था जिसे मुगल आक्रांताओं ने नष्ट भ्रष्ट कर दिया । इस बात की गवाही स्वयं उनके ही द्वारा लिखे गए और जड़े गए शिलालेख देते हैं । कुतुबमीनार के साथ बनी कुव्वत-उल-इस्लाम नामक मस्ज

कुतुबमीनार और दिल्ली का वास्तविक इतिहास

  कुतुबमीनार : जैन मानस्तंभ या सुमेरू पर्वत ? प्रो डॉ.अनेकांत कुमार जैन आचार्य - जैन दर्शन विभाग , दर्शन संकाय श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विश्वविद्यालय नई दिल्ली -११००१६ drakjain @ 2016gmail.com 9711397716     हमें ईमानदारी पूर्वक भारत के सही इतिहास की खोज करनी है तो हमें जैन आचार्यों द्वारा रचित प्राचीन साहित्य और उनकी प्रशस्तियों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए | यह बात अलग है कि उनके प्राचीन साहित्य को स्वयं भारतीय इतिहासकारों ने उतना अधिक उपयोग इसलिए भी नहीं किया क्यों कि जैन आचार्यों द्वारा रचित साहित्य के उद्धार को मात्र अत्यंत अल्पसंख्यक जैन समाज और ऊँगली पर गिनने योग्य संख्या के जैन विद्वानों की जिम्मेदारी समझा गया और इस विषय में राजकीय प्रयास बहुत कम हुए |इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कुछ सांप्रदायिक भेद भाव का शिकार भी जैन साहित्य हुआ है और यही कारण है कि आज भी जैन आचार्यों के द्वारा संस्कृत,प्राकृत और अपभ्रंश आदि विविध भारतीय भाषाओँ   में   प्रणीत हजारों लाखों हस्तलिखित पांडुलिपियाँ शास्त्र भंडारों में अपने संपादन और अनुवाद