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नासूर हैं उपाधियों की व्याधियाँ

सादर प्रकाशनार्थ *नासूर हैं उपाधियों की व्याधियाँ* एक और रोग नासूर हो चला है,वह है उपाधियों का ।आज लोग अपने  व्यक्तित्व और काबलियत की कमी की पूर्ति इन खुद ही जड़े हुए शाब्दिक तमगों को जबरजस्ती या खरीदकर या जुगाड़ करके अपने नाम के साथ जोड़ने में मान रहे हैं। कैसी नादानी या बेवकूफी है कि हम इस दुर्लभ मनुष्य जन्म का उपयोग अपने क्षणिक नाम और भ्रामक उपाधियों के जाल में उलझ कर अपना आत्म विनाश कर रहे हैं ।कभी कभी तो उपाधियों का इतना बड़ा मायाजाल खड़ा कर देते हैं कि मूल नाम स्वयं में अनुसंधेय हो जाता है कि आखिर वह है कौन सा ? गृहस्थों, पंडितों या अन्य संसारी के लिए उचित न होते हुए भी यह उतना बड़ा अपराध नहीं प्रतिभासित होता जितना संसार से निवृत्त,मोक्ष मार्ग में संलग्न वीतरागी साधु के लिए होता है। क्या साथ ले जाना है ? नाम ,शरीर सब यहीं धरा रह जाना है।फिर भी हम अपने विराट आत्म वैभव को विस्मृत कर के किस नाम रुप के जड़ संसार में डूब कर अपना और धर्म दोनों का पतन किये जा रहे हैं  ? जिन्हें भाग्य से संसार का सर्वोच्च शिखर जैसा परमेष्ठी पद "साधु" /मुनि " /उपाध्याय/ आचार्य पद प्

आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में गोमटेश्वर' -डॉ अनेकान्त कुमार जैन

'आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में गोमटेश्वर' -डॉ अनेकान्त कुमार जैन , नई दिल्ली कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में स्थित विश्व प्रसिद्ध भगवान गोमटेश्वर बाहुबली की दिगम्बर खड्गासन प्रतिमा के जो भी दर्शन करता है वह अभिभूत हो जाता है । श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के यशस्वी आचार्य महाप्रज्ञ जी जब आचार्य श्री तुलसी जी के साथ श्रवणबेलगोला ,कर्नाटक के सुप्रसिद्ध गोमटेश्वर की प्रतिमा के सम्मुख 15 मई 1969  को ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन पधारे थे तब गोमटेश बाहुबली की विशाल प्रतिमा के दर्शन करके उन्होंने संस्कृत श्लोक के माध्यम से भगवान गोमटेश की मूर्ति को देख कर अपनी भक्ति अपनी दार्शनिक शैली में प्रकट की है । वे गोमटेश्वर की प्रतिमा के विभिन्न अंगों को अनंत शक्ति का स्रोत बताते हुए कहते हैं - शक्तिर्व्यक्तिं याति बाहुद्वयेन,ज्ञानालोको मस्तकस्थो विभाति । आलोकानां माध्यमं चक्षुरेतत् , मोहाSभावो  व्यज्यते पुंस्कचिन्है: ।। अर्थात् मनुष्य अनंत शक्ति का स्रोत है उसकी मुख्य शक्तियां चार हैं -ज्ञान ,दर्शन ,वीर्य और पवित्रता । मनुष्य के शरीर में इन चारों शक्तियों की अभिव्यक्ति के चार स्था

इस कहानी के माध्यम से मैं कुछ कहना चाहता हूँ ००००

इस कहानी के माध्यम से मैं कुछ कहना चाहता हूँ ०००० डॉ अनेकान्त कुमार जैन ,नई दिल्ली  किसी की प्रेरणा से उसने मंदिर आना शुरू ही किया था , पहले ही दिन किसी काले पुजारी ने उसे काली टी शर्ट के लिए उसे बहुत बुरी तरह से टोक दिया , उसे लगा यदि काला रंग इतना अशुभ है तो काली चमड़ी के मनुष्यों को भी पूजा नहीं करनी चाहिए एक दिन वह रात में मंदिर आया और घंटा बजाया तो किसी ने उसे रात में घंटा बजाने से यह कह कर मना किया कि इससे हिंसा होती है  और शोर होता है,वह मान गया । बाद में उसने मंदिर में ही रात को सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ढ़ोल मजीरे आर्केस्ट्रा बजते देखा तो उसे बहुत बुरा लगा, ये दोहरे मानदंड देखकर । उसने प्रवचन में सुना कि धन संग्रह नहीं करना चाहिए ,और ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए , फिर प्रवचन के बाद उसने करोड़ो की बोलियां सुनी और सबसे बड़े परिग्रही का सम्मान ,ज्ञानी पंडित जी से ज्यादा होते देखा तो उसका कंफ्यूजन बढ़ गया । एक दिन मंदिर में पूजा के दौरान  अचानक उसका मोबाइल बजने लगा...... हद तो तब हुई जब पूजा समाप्त हुई तो सभी पुजारियों ने उसे बुरी तरह ज़लील कर दिया .... बाद में उसने

मौन और तटस्थ रहना भी अपराध है

मौन   और तटस्थ रहना भी अपराध है -    प्रो    डॉ अनेकान्त कुमार जैन , नई दिल्ली   निःसंदेह आध्यात्मिक दृष्टि से , स्वास्थ्य की दृष्टि से , शिष्टाचार , सम्मान और शांति आदि कई मायनों में मौन रहना एक अच्छे व्यक्तित्व की निशानी है । वह एक साधना भी है । मौन रहने के जितने भी लाभ गिनाए जायें उतने कम   हैं ।कहा गया है – ‘ मौनं सर्वार्थसाधकम् ’ किन्तु हर समय मौन रहना भी हानिकारक है । खासकर तब जब सब कुछ लुट रहा हो । कहा भी है – ' अति का भला न बोलना , अति की भली न चूप ' कुछ प्रसंग ऐसे भी होते हैं जब सज्जनों को बिल्कुल चुप नहीं रहना चाहिये । ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य शुभचंद्र लिखते हैं - धर्मनाशे क्रियाध्वंसे स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ।।       ( ज्ञानार्णव/ 545) अर्थात् जब धर्म का नाश हो रहा हो , आगम सम्मत क्रिया नष्ट हो रही हो , आगम या सिद्धांत का गलत अर्थ लगाया जा रहा हो तब विद्वानों को   बिना पूछे भी यथार्थ स्वरूप को बतलाने वाला व्याख्यान / कथन जरूर करना चाहिए ।   ऐसे वक्त पर उन्हें मौन बिल्कुल नहीं रहना

भारतीय संस्कृति के विकास में तीर्थंकर ऋषभदेव का योगदान

गोमटेश के दर्शन से विकार भागता है ना कि उत्पन्न होता है”

दिगंबर गोमटेश के दर्शन से विकार भागता है ना कि उत्पन्न होता है” डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली  दिगंबर जैन सम्प्रदाय के परम आराध्य जिनेन्द्र देव या तीर्थंकरों की खड्गासन मुद्रा में निर्वस्त्र और नग्न प्रतिमाओं को लेकर खासे संवाद होते रहते हैं | नग्नता को अश्लीलता के परिप्रेक्ष्य में भी देखकर पीके जैसी फिल्मों में इसे मनोविनोद के केंद्र भी बनाने जैसे प्रयास होते रहते हैं | दिगंबर जैन मूर्तियों के पीछे जो दर्शन है ,जो अवधारणा है उसे समझे बिना ही अनेक अज्ञानी लोग कुछ भी कथन करने से पीछे नहीं रहते | इस विषय को आज के विकृत समाज को समझाना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है | सुप्रसिद्ध जैन मनीषी सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचंद्र शास्त्री जी ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘जैनधर्म’ में मूर्तिपूजा के प्रकरण में पृष्ठ ९८ -१०० तक इसकी सुन्दर व्याख्या की है जिसमें उन्होंने सुप्रसिद्ध साहित्यकार काका कालेलकर जी का वह वक्तव्य उद्धृत किया है जो उन्होंने श्रवणबेलगोला स्थित सुप्रसिद्ध भगवान् गोमटेश बाहुबली की विशाल नग्न प्रतिमा को देखकर प्रगट किये थे | वे लिखते हैं - जैन मूर्ति निरावरण और निराभरण होती है जो

दुष्ट स्वभावी को सम्यक्त्व नहीं होता'

'दुष्ट स्वभावी को सम्यक्त्व नहीं होता' खुद्दो रुद्दो रुठ्ठो , अणिट्ठ पिसिणो सगव्वियो-सूयो । गायण-जायण-भंडण-दुस्सण-सीलो दु सम्म-उमुक्को ।। आचार्य कुन्दकुन्द ,रयणसार,44 अनेकान्तानुवाद - छोटे मन वाले क्रोध के स्वामी हर बात पर नाराज होते पर अनिष्ट इच्छाधारी चुगली करते फिरते ईर्ष्या में डूबे रहते अभिमान के शिखर पर चढ़ते कलह में आनंद लेते याचना में गीत गाते दूसरों पर दोष देते इस प्रवृत्ति के मुमुक्षु सम्यक्त्व से हैं रहित होते गाथार्थ - क्षुद्र और रौद्र(क्रोध) स्वभाव वाले  , बात बात पर रुष्ट (नाराज )होने वाले,दूसरों का अनिष्ट चाहने या करने वाले , चुगलखोर, अभिमानी,ईर्ष्यालु,गायक,याचक,कलह करने वाले और दूसरों को दोष लगाने वाले----ये सब सम्यक्त्व रहित होते हैं । प्रस्तुति - डॉ अनेकान्त कुमार जैन , नई दिल्ली