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'वीतराग विज्ञान' और 'अर्हं योग' दोनों आगम सम्मत वाक्य हैं

*'वीतराग विज्ञान' और 'अर्हं योग' दोनों  आगम सम्मत वाक्य हैं*

प्रो अनेकान्त कुमार जैन

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्भक्ति-रेव-मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।

जिनेन्द्र सिद्धांत कोष में आगम को लेकर जिनेन्द्र वर्णी जी ने एक भूमिका लिखी है जो मेरे इस लघु लेख का अभिप्राय  प्रगट करने के लिए पर्याप्त है -

*जैनागम यद्यपि मूल में अत्यंत विस्तृत है पर काल दोष से इसका अधिकांश भाग नष्ट हो गया है। उस आगम की सार्थकता उसकी शब्द रचना के कारण नहीं बल्कि उसके भाव प्रतिपादन के कारण है। इसलिए शब्द रचना को उपचार मात्र से आगम कहा गया है। इसके भाव को ठीक-ठीक ग्रहण करने के लिए पाँच प्रकार से इसका अर्थ करने की विधि है - शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ व भावार्थ। शब्द का अर्थ यद्यपि क्षेत्र कालादि के अनुसार बदल जाता है पर भावार्थ वही रहता है, इसी से शब्द बदल जाने पर भी आगम अनादि कहा जाता है।*

मुगल काल में और उसके बाद भी मूल जिन शासन की रक्षा करने वाले
हमारे प्राचीन मनीषी
पंडित बनारसी दास जी ,पंडित दौलतराम जी ,पंडित टोडरमल जी ,पंडित सदासुखदास जी आदि आदि अनेक विद्वान् जिनके ऊपर कभी किसी आचार्य परंपरा ने आज तक उंगली नहीं उठाई ,की रचनाओं  को नकारने और दोषारोपण करने के दुस्साहस की एक आत्मघाती मुहिम भी चलती दिख रही है । बिना यह विचार किये कि इससे स्वयं के धर्म दर्शन की और स्वयं की कितनी हानि होगी ,पता नहीं किस अभिप्राय में इन महामनीषियों के प्रति ऐसी भाषा का प्रयोग हो रहा है मानो ये कोई आतंकवादी थे और इन्होंने जिन शासन को बर्बाद कर दिया । 

मूल भाव और अभिप्राय समझे बिना
हर शब्द के आगम प्रमाण मांगे जा रहे हैं । यह बात बिल्कुल ऐसे ही है जैसे कि मैंने एक बार  अपने विश्वविद्यालय में अहिंसा पर व्याख्यान देते समय यह कह दिया कि  बंदूक चलाना धर्म विरुद्ध है, इस पर एक शोधार्थी ने पूछा कि बंदूक शब्द आगम में कहाँ आया है ? वास्तव में यह शब्द पूरी द्वादशांग वाणी में कहीं नहीं आया है ।  फिर कोई यह कहे कि इनका कथन आगम विरुद्ध है तो यह बात जंचती है क्या ? आगम में अहिंसा और हिंसा शब्द आया है ,आगम के काल में बंदूक बनी ही नहीं थी तो यह शब्द उसमें क्यों आएगा भला ? व्याख्या में परवर्ती लेखकों का भाव पक्ष भी देखा जाता है , यदि लेखक या वक्ता आगम के मूल भाव को ही अभिव्यक्त कर रहा है ,फिर शब्द संयोजन से नए वाक्य भी निर्मित करता है तो उसे इतिहास में कभी गलत नहीं समझा गया , बल्कि उसे आगम प्रमाण ही माना गया है । मैं प्राचीन आचार्यों के ऐसे सैकड़ों शब्द प्रयोग प्रमाण सहित बता सकता हूँ जो उनसे प्राचीन आगमों में थे ही नहीं । जैसे पूज्य आचार्य समन्तभद्र महाराज ने 'सर्वोदय' शब्द का सबसे पहले प्रयोग किया ,जो उनके पूर्व में किसी आगम में नहीं मिलता लेकिन इस शब्द का प्रयोग आज आम हो गया और महावीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ कहा जाता है ।

धवला में आचार्य वीरसेन स्वामी ने अर्वाचीन छद्मस्थों के द्वारा प्रणीत शास्त्रों को आगम स्वीकार किया है -

 कथं छद्मस्थानां सत्यवादित्वमिति चेन्न, यथाश्रुतव्याख्यातृणां तदविरोधात्। प्रमाणीभूतगुरुपर्वक्रमेणायातोऽयमर्थ इति कथमवसीयत इति चेन्न, दृष्टिविषये सर्वत्राविसंवादात्। अदृष्टविषयेऽप्यविसंवादिनागमभावेनैकत्वे सति सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणकत्वात्। ऐदंयुगीनज्ञानविज्ञानसंपन्नभूयसामाचार्याणामुपदेशाद्वा तदवगतेः।

(धवला पुस्तक 1/1,1,22/197/1)

प्रश्न - छद्मस्थों के सत्यवादीपना कैसे माना जा सकता है? 
उत्तर - नहीं, क्योंकि श्रुत के अनुसार व्याख्यान करने वाले आचार्यों के प्रमाणता मानने में विरोध नहीं है।

 प्रश्न - आगम का विवक्षित अर्थ प्रामाणिक गुरुपरंपरा से प्राप्त हुआ है वह कैसे निश्चित किया जाये? 

उत्तर - नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षभूत विषय में तो सब जगह विसंवाद उत्पन्न नहीं होने से निश्चय किया जा सकता है। और परोक्ष विषय में भी, जिसमें परोक्ष विषय का वर्णन किया गया है। वह भाग अविसंवादी आगम के दूसरे भागों के साथ आगम की अपेक्षा एकता को प्राप्त होने पर अनुमानादि प्रमाणों के द्वारा बाधक प्रमाणों का अभाव सुनिश्चित होने से उसका निश्चय किया जा सकता है। अथवा आधुनिक ज्ञान विज्ञान से युक्त आचार्यों के उपदेश से उसकी प्रामाणिकता जाननी चाहिए।

आगम के विषय में परीक्षामुखसूत्र का कथन दृष्टव्य है -

सामान्य रूप से आप्त के वचन को आगम कहा जाता है | आप्त के वचनादि से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम कहते हैं।
 आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः।-(परीक्षामुख  ३/९९)

यहां भी शब्द के साथ साथ उससे भी  ज्यादा अर्थ ज्ञान पर जोर दिया गया है । 
आगम में 'वीतराग' शब्द मिलता है और 'विज्ञान' शब्द भी मिलता है और हमारे इन प्राचीन मनीषियों ने इन दोनों को संयोजित करके एक नया वाक्य 'वीतराग विज्ञान' शब्द जोड़ कर प्रयोग कर दिया तो  क्या अपराध कर दिया ? इसका भाव तो आगमानुसार ही है ।अतः वह आगम के अनुसार युक्त ही है । अभिप्राय भी देखा जाता है मात्र शब्द नहीं । 

ठीक वैसे ही जैसे प्राचीन आगमों में 'अर्हं योग' शब्द कहीं नहीं मिलता किंतु 'अर्हं' मिलता है और 'योग' मिलता है इसलिए वर्तमान की आवश्यकता के अनुसार 'अर्हं योग' वाक्य का नया प्रयोग आगम विरुद्ध नहीं है । अर्हं योग में जो विधियां और प्रयोग करवाये जा रहे हैं उसका भी आगम में यथावत उल्लेख नहीं है किंतु जैन योग अध्यात्म की मूल अवधारणा के आधार पर नई प्रायोगिक संरचना विकसित हुई है तो सर्वत्र उसका स्वागत भी हो रहा है ।

मेरा निवेदन बस इतना है कि 'छलं ण घेतव्वं' , हमें पूज्य आचार्य कुन्दकुन्द के इस वाक्य को हमेशा अपना आदर्श मानते हुए छल न ग्रहण करना चाहिए और न करवाना चाहिए । 

पंडित दौलतराम जी के अलावा भी अनेक छहढाला अनेक लोगों ने लिखीं थीं लेकिन किंतु इनकी ही घर घर में लाखों लोगों के कंठ का हार बन पाई , क्यों ? क्यों कि उसमें दम था । इसे लघु समयसार तक कहा जाता है । जिस प्रकार उसी रामकथा को कहने वाले महर्षि बाल्मीकि अपने  रामायण के श्लोकों से जनता में उस तरह नहीं पहुंच पाए जिस प्रकार रामचरितमानस की चौपाइयों से तुलसीदास पहुंच गए । आज यदि गांव गांव में लोगों को चौपाइयां कंठ का हार बनीं हैं और राम दिलों में बसे हैं तो तुलसीदास जी की भाव प्रवणता ,सरलता ,सुगमता और काव्य सौंदर्य का वैशिष्ट्य और राम के प्रति निःस्वार्थ अगाध भक्ति के कारण बस पाए ,उसी प्रकार आम समाज में जैनदर्शन और उसके तत्त्व ज्ञान को हृदयंगम कराने में पंडित दौलतराम जी की बेजोड़ छहढाला ही अपने अद्वितीय साहित्यिक और तात्त्विक वैशिष्ट्य के कारण प्रसिद्ध और सुरक्षित रह पाई ।

मुझे महत आश्चर्य तब हुआ जब एक नवयुवक ने एक ऐसा संदेश सोशल मीडिया पर जारी कर दिया कि छहढाला पुस्तक को मंदिरों से बाहर फेंक दिया जाय । 

अब ऐसा बुरा असर होने लग जाये तो बहुत विवश होकर और बहुत ही पवित्र मन से यह स्पष्टीकरण करने का भाव हुआ है ।

मेरा विशुद्ध मन से सभी से विनम्र निवेदन है कि न जाने कितने संघर्षों से हमारे प्राचीन मनीषियों ने  उन विकट परिस्थितियों में भी जिन शासन का रथ खींच कर यहाँ तक पहुंचाया है । आज के समय में  मुट्ठी भर लोग हैं जो न जाने कितनी प्रेरणाओं के बाद कुछ जिन वचन सुनने पढ़ने को किसी तरह तैयार होते हैं । उनके भीतर किसी तरह जिनवाणी के शब्दों पर विश्वास जम पाता है ,बमुश्किल कोई कोई रचनाएं ही ऐसी हो पाती हैं जो सभी को पसंद आ जाती हैं । अब हम यदि उनकी प्रमाणता पर ही संदेह की उंगलियां उठाकर अविश्वास का माहौल बनाएंगे तो भविष्य में कौन राह दिखायेगा ? ये थोड़े से लोग भी पढ़ना लिखना सुनना छोड़ देंगे तो हम जिन शासन का संरक्षण कैसे कर पाएंगे । शांत मन से बिना किसी पक्षपात के इस विषय पर गंभीरता से सभी को विचार करने की बहुत आवश्यकता है । 

*कौन कहता है बड़ी लकीरें न खींचीं जाये ।*
*गुनाह तब है जब पुरानी को मिटाया जाय ।।*

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
आपका यह लेख प्रासंगिक व प्रभावपूर्ण हाेने के साथ-साथ पथप्रदर्शक भी है।
अत्युत्तम

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