सादर प्रकाशनार्थ *नासूर हैं उपाधियों की व्याधियाँ* एक और रोग नासूर हो चला है,वह है उपाधियों का ।आज लोग अपने व्यक्तित्व और काबलियत की कमी की पूर्ति इन खुद ही जड़े हुए शाब्दिक तमगों को जबरजस्ती या खरीदकर या जुगाड़ करके अपने नाम के साथ जोड़ने में मान रहे हैं। कैसी नादानी या बेवकूफी है कि हम इस दुर्लभ मनुष्य जन्म का उपयोग अपने क्षणिक नाम और भ्रामक उपाधियों के जाल में उलझ कर अपना आत्म विनाश कर रहे हैं ।कभी कभी तो उपाधियों का इतना बड़ा मायाजाल खड़ा कर देते हैं कि मूल नाम स्वयं में अनुसंधेय हो जाता है कि आखिर वह है कौन सा ? गृहस्थों, पंडितों या अन्य संसारी के लिए उचित न होते हुए भी यह उतना बड़ा अपराध नहीं प्रतिभासित होता जितना संसार से निवृत्त,मोक्ष मार्ग में संलग्न वीतरागी साधु के लिए होता है। क्या साथ ले जाना है ? नाम ,शरीर सब यहीं धरा रह जाना है।फिर भी हम अपने विराट आत्म वैभव को विस्मृत कर के किस नाम रुप के जड़ संसार में डूब कर अपना और धर्म दोनों का पतन किये जा रहे हैं ? जिन्हें भाग्य से संसार का सर्वोच्च शिखर जैसा परमेष्ठी पद "साधु" /मुनि " /उपाध्याय/ आचार्य पद प्