सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

नासूर हैं उपाधियों की व्याधियाँ

सादर प्रकाशनार्थ

*नासूर हैं उपाधियों की व्याधियाँ*

एक और रोग नासूर हो चला है,वह है उपाधियों का ।आज लोग अपने  व्यक्तित्व और काबलियत की कमी की पूर्ति इन खुद ही जड़े हुए शाब्दिक तमगों को जबरजस्ती या खरीदकर या जुगाड़ करके अपने नाम के साथ जोड़ने में मान रहे हैं।

कैसी नादानी या बेवकूफी है कि हम इस दुर्लभ मनुष्य जन्म का उपयोग अपने क्षणिक नाम और भ्रामक उपाधियों के जाल में उलझ कर अपना आत्म विनाश कर रहे हैं ।कभी कभी तो उपाधियों का इतना बड़ा मायाजाल खड़ा कर देते हैं कि मूल नाम स्वयं में अनुसंधेय हो जाता है कि आखिर वह है कौन सा ?

गृहस्थों, पंडितों या अन्य संसारी के लिए उचित न होते हुए भी यह उतना बड़ा अपराध नहीं प्रतिभासित होता जितना संसार से निवृत्त,मोक्ष मार्ग में संलग्न वीतरागी साधु के लिए होता है।

क्या साथ ले जाना है ? नाम ,शरीर सब यहीं धरा रह जाना है।फिर भी हम अपने विराट आत्म वैभव को विस्मृत कर के किस नाम रुप के जड़ संसार में डूब कर अपना और धर्म दोनों का पतन किये जा रहे हैं  ?

जिन्हें भाग्य से संसार का सर्वोच्च शिखर जैसा परमेष्ठी पद "साधु" /मुनि " /उपाध्याय/ आचार्य पद प्राप्त हुआ है,उनके लिए इससे बड़ा कोई और पद होता है क्या ? इससे बड़ा कोई और सम्मान है क्या ?

डाक्टर,वाणी भूषण,संत शिरोमणि,उच्चारणाचार्य,प्राकृताचार्य ,
राष्ट्रसंत ,विश्वसंत आदि अन्याय लौकिक  उपाधियों की क्या कीमत है ? हम जो हैं उसमें सन्तुष्ट क्यों नहीं हैं ?

किस अर्थहीन संसार में खुद को जबरदस्ती फँसा रहे हैं जब कि महाभाग्य से दुर्लभ भगवान महावीर सा यथाजात स्वरूप हमें ऐसा प्राप्त हुआ है जिसके लिए स्वर्ग के देवेंद्र भी तरसते हैं। मुनि चंदा इकट्ठे करने वाले और हिसाब किताब करने वाले मुनीम नहीं हो सकते ,वे तो सर्वसंपन्न राजा से भी बड़े महाराज हैं क्योंकि वे सर्वत्याग संपन्न हैं।

विषय मात्र विचारणीय नहीं अनुकरणीय भी है।मेरे विचार से तो पञ्च परमेष्ठी में स्थान मिलना समूचे ब्रम्हाण्ड में सर्वोच्च स्थान और पद मिलना हैं । इस पद के साथ डॉ० आदि कोई और उपाधि जोड़ना परमेष्ठी पद की गरिमा नहीं अपितु उसका अपमान है ।

-डॅा०अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वर्तमान में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य

                                                              वर्तमान में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य                                                                        प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली जैन परंपरा में मंदिर और मूर्ति निर्माण का इतिहास बहुत पुराना है | खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख में कलिंग जिन की मूर्ति वापस लाने का उल्लेख है | वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है। यह मूर्ति मौर्यकाल   की है और पटना म्यूजियम में रखी हुई है। इसकी चमकदार पालिस अभी तक भी ज्यों की त्यों बनी है। लाहौर , मथुरा , लखनऊ , प्रयाग आदि के म्यूजियमों में भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं। श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के समय में तैयार की गई थी। वास्तव में मथुरा में जैनमूर्ति कला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है। श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि मथुरा की शुंगकालीन कला मुख्यत: जैन सम्प्रदाय की है। खण्डगिरि और उदयगिरि में ई. पू. १८८-३० तब क

आचार्य फूलचन्द्र जैन प्रेमी : व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व

 आचार्य फूलचन्द्र जैन प्रेमी  : व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व   (जन्मदिन के 75 वर्ष पूर्ण करने पर हीरक जयंती वर्ष पर विशेष ) #jainism #jainphilosophy #Jainscholar #Jain writer #jaindarshan #Philosophy #Prakrit language #Premiji #Prof Phoolchand jain ( विशेष निवेदन  : 1.प्रो प्रेमी जी की  इस जीवन यात्रा में  निश्चित ही आपका भी आत्मीय संपर्क इनके साथ रहा होगा ,आप चाहें तो उनके साथ आपके संस्मरण ,रोचक वाकिये,शुभकामनाएं और बधाई आप नीचे कॉमेंट बॉक्स में लिखकर पोस्ट कर सकते हैं | 2. इस लेख को पत्र पत्रिका अखबार वेबसाइट आदि प्रकाशन हेतु स्वतंत्र हैं । प्रकाशन के अनन्तर इसकी सूचना 9711397716 पर अवश्य देवें   - धन्यवाद ) प्राच्य विद्या एवं जैन जगत् के वरिष्ठ मनीषी श्रुत सेवी आदरणीय   प्रो.डॉ. फूलचन्द्र जैन प्रेमी जी श्रुत साधना की एक अनुकरणीय मिसाल हैं , जिनका पूरा जीवन मात्र और मात्र भारतीय प्राचीन विद्याओं , भाषाओँ , धर्मों , दर्शनों और संस्कृतियों को संरक्षित और संवर्धित करने में गुजरा है । काशी में रहते हुए आज वे अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष और विवाह के पचास वर्ष पूरे कर र

काशी के स्याद्वाद का स्वतंत्रता संग्राम

काशी के स्याद्वाद का स्वतंत्रता संग्राम प्रो अनेकांत कुमार जैन आचार्य – जैनदर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-16,Ph  ,9711397716 १९४२ में काशी के भदैनी क्षेत्र में गंगा के मनमोहक तट जैन घाट पर स्थित स्याद्वाद महाविद्यालय और उसका छात्रावास आजादी की लड़ाई में अगस्त क्रांति का गढ़ बन चुका था |  जब काशी विद्यापीठ पूर्ण रूप से बंद कर दिया गया , काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रावास जबरन खाली करवा दिया गया और आन्दोलन नेतृत्त्व विहीन हो गया तब आन्दोलन की बुझती हुई लौ को जलाने का काम इसी स्याद्वाद महाविद्यालय के जैन छात्रावास ने किया था | उन दिनों यहाँ के जैन विद्यार्थियों ने पूरे बनारस के संस्कृत छोटी बड़ी पाठशालाओं ,विद्यालयों और महाविद्यालयों में जा जा कर उन्हें जगाने का कार्य किया ,हड़ताल के लिए उकसाया ,पर्चे बांटे और जुलूस निकाले |यहाँ के एक विद्यार्थी दयाचंद जैन वापस नहीं लौटे , पुलिस उन्हें खोज रही थी अतः खबर उड़ा दी गई कि उन्हें गोली मार दी गई है,बी एच यू में उनके लिए शोक प्रस्ताव भी पास हो गया | उन्हें जीवित अवस्था में ही अमर शहीद ह