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प्रकृति एकांत वादी नहीं है

  प्रकृति एकांत वादी नहीं है

कुछ ,कभी भी ,सब कुछ नहीं हो सकता |प्रकृति संतुलन बैठाती रहती है |वह हमारी तरह भावुक और एकान्तवादी नहीं है |हम भावुकता में बहुत जल्दी जीवन के किसी एक पक्ष को सम्पूर्ण जीवन भले ही घोषित करते फिरें पर ऐसा होता नहीं हैं |

जैसे हम बहुत भावुकता में आदर्शवादी बन कर यह कह देते है कि
१.प्रेम ही जीवन है|
२.अहिंसा ही जीवन है |
३. जल ही जीवन है |
४.अध्यात्म ही जीवन है | आदि आदि

यथार्थ यह है कि ये चाहे कितने भी महत्वपूर्ण क्यूँ न हों किन्तु सब कुछ नहीं हैं |ये जीवन का एक अनिवार्य पक्ष ,सुन्दर पक्ष हो सकता है लेकिन चाहे कुछ भी हो सम्पूर्ण जीवन नहीं हो सकता |इसीलिए कायनात इन्साफ करती है क्यूँ कि हमारी तरह वह सत्य की बहुआयामिता का अपलाप नहीं कर सकती |

इसीलिए विश्व के इतिहास में दुनिया के किसी  भी धर्म को कायनात उसकी  कुछ एक विशेषताओं के कारण एक बार उसे छा जाने का मौका देती है किन्तु चाहे वे सम्पूर्ण सत्य दृष्टि का कितना भी दावा करें वे अन्ततोगत्वा ज्यादा से ज्यादा बहुभाग का एक हिस्सा बन कर रह जाते हैं ,उन की कुछ विशेषताओं के कारण एक कोना उन्हें नसीब तो हो जाता है लेकिन वे विराट रूप में छा नहीं पाते |कायनात जानती है कि ये भी सत्य के एक अंश का ढोल मात्र पीट रहे हैं |

जीवन शत प्रतिशत अध्यात्म वादी भी नहीं हो सकता |हाँ प्रतिशत कम ज्यादा हो सकता है |प्रेम की महत्ता भी कुछ है पर वह भी  सब कुछ नहीं है |अच्छा ही होगा ...यह भी एकांत मान्यता है |बुरा भी है ,उसका भी अस्तित्व है |यहबात अलग है कि यह हमें स्वीकार नहीं होता | हम और आप एकांतवादी हो सकते हैं ,वस्तु या प्रकृति तो अनेकांत स्वभाव वाली ही है | अच्छा है तो बुरा भी है |देव हैं तो राक्षस भी हैं |भ्रष्ट हैं तो ईमानदार भी हैं ,दुःख है तो सुख भी है |नित्य है तो अनित्यता भी है |

आश्चर्य यह है कि ये दोनों साथ रहते हैं और हम इन्हें विरोधी मानते हैं | प्रकृति कहती है कि ये विरोध प्रतीत होता है ...वस्तुतः है नहीं |ये एक दूसरे के अस्तित्व का कारण हैं  | जो हमारे अस्तित्व का कारण है उसे हम विरोधी कैसे मान  सकते हैं ? पता लगाइए हम जिसे अपना विरोधी माने  बैठे हैं और द्वेष वशात उसे समाप्त करना चाहते हैं कहीं सूक्ष्म रूप से वो हमारे अस्तित्व का कारण तो नहीं |उसे समाप्त करके कहीं हम अपने अस्तित्व को ही तो चुनौती तो नहीं दे रहे ?...कहीं हम अपने पैर पर ही तो कुल्हाड़ी नहीं मार रहे ? विरोध को स्वीकारना भी प्रकृति है |

अंशी होने के गुमान में हम अंश होकर ही रह जाते हैं ,अच्छा है जो प्रकृति अपना संतुलन बनाती रहती है |मंदिर ,मस्जिद ,गुरुद्वारा ,चर्च आदि सबको खाक बना देती है |हमें यह सोचने पर विवश करती है की जिनके लिए हम लड़ मर रहे हैं उनकी कीमत मिटटी के सिवा कुछ भी नहीं |ये सब हमने इसलिए मिटाया कि इनसे जो सीखना था वो तुम न सीख सके |मिथ्या अहंकार था ..टूट गया |अब किस बात पर लड़ोगे -झगडोगे ?इसीलिए अच्छा है जो दीवारें हम नहीं तोड़ सकते उन्हें प्रकृति स्वयं ढहा देती है |

               -डॉ अनेकांत

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