*आचार्य श्री का जीवन ही उनका दर्शन था*
- प्रो अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली
तिलोयपण्णत्ति में आचार्य परमेष्ठी का लक्षण लिखा है -
पंचमहव्वयतुंगा ,तक्कालियसपरसमय सुदधारा ।
णाणागुणगणभरिया,आइरिया मम पसीदंतु ।।
(गाथा 1/3)
पांच महाव्रतों से समुन्नत , तत्कालीन स्व समय और पर समय रूप श्रुत के ज्ञाता तथा नाना गुण समूह से परिपूर्ण आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों ।
वर्तमान में आचार्य श्री का जीवन देखते हैं तो ये लक्षण उन पर पूरे घटित होते थे । वे पांच महाव्रतों के धारी तो थे ही साथ ही वे राष्ट्र में सभी दृष्टियों से समन्वय भी बना कर चलते थे । जैन दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे तो अन्य भारतीय दर्शनों पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी । राजनीति के शीर्ष नेतृत्व को प्रभावित करके उन्हें मुनि परंपरा, धर्म दर्शन संस्कृति के प्रति समर्पित करना और उसका संरक्षण संवर्धन करवाना - ये सारे दायित्व भी एक आचार्य के होते हैं ,जिसे वे बहुत संतुलन के साथ करते थे । आज उनका नहीं होना जैन परंपरा के सूर्य के अस्त होने जैसा है ।
समणपरंवरसुज्जं सययसंजमतवपुव्वगप्परदं।
चंदगिरिसमाधित्थं णमो आयरियविज्जासायराणं ।।
श्रमण परम्परा के सूर्य , सतत संयम तप पूर्वक आत्मा में रमने वाले और चंद्रगिरी तीर्थ पर समाधिस्थ (ऐसे) आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी को हमारा कोटिशः नमोस्तु ।
णेणातित्थे तविओ,सयय णमो विज्जासायराणं य।
णागो वि सुणइ धम्मं ,जं देसणासुदपवयणं च ।।
नैनागिरी तीर्थ पर तपस्या करने वाले उन आचार्य विद्यासागर महाराज को मेरा सतत नमस्कार है जिनकी श्रुत प्रवचन देशना सुनने सर्प जैसे तिर्यंच भी भक्ति पूर्वक वहां आ जाते थे ।
विश्वास ही नहीं हो रहा कि हम सभी के परम गुरु, भारत की पवित्र धरा पर पिछले लगभग छह दशकों से वीतरागी नग्न दिगम्बर उन्मुक्त विचरण करने वाले ,परम तपस्वी , स्वानुभवी आचार्य विद्यासागर जी महाराज, जिन्होंने स्वयं के कल्याण के साथ साथ हम जैसे जीवों के कल्याण के लिए शाश्वत मोक्षमार्ग की शिक्षा देकर हम सभी का परम उपकार किया, लोकोत्तर यात्रा पर निकल गए हैं |
संयम और ज्ञान की चलती फिरती महापाठशाला के आप ऐसे अनोखे आचार्य थे जो न सिर्फ कवि,साहित्यकार और विभिन्न भाषायों के वेत्ता थे बल्कि न्याय,दर्शन ,अध्यात्म और सिद्धांत के महापंडित भी थे ,ज्ञान के क्षेत्र में जितने ऊँचे थे ,उससे कहीं अधिक ऊँचे वैराग्य ,तप,संयम की आराधना में थे | ऐसा मणि-कांचन संयोग सभी में सहज प्राप्त नहीं होता |
विद्यासागर सिर्फ उनका नाम नहीं था यह उनका जीवन था,वे चलते फिरते पूरे एक विशाल विश्वविद्यालय थे , वे संयम , तप, वैराग्य , ज्ञान विज्ञान की एक ऐसी नदी थे जो हज़ारों लोगों की प्यास बुझा रहे थे , कितने ही भव्य जीव इस नदी में तैरना और तिरना दोनों सीख रहे थे |
कितने ही उन्हें पढ़कर जानते थे ,कितने ही उन्हें सुनकर जानते थे ,कितने ही उन्हें देख कर जानते थे और न जाने ऐसे कितने लोग थे जो उन्हें जीने की कोशिश करके उन्हें जानने का प्रयास कर रहे थे |
इन सबके बाद भी आज बहुत से लोग ऐसे हैं जो कुछ नया जानना चाहते हैं , जीवन दर्शन को समझना चाहते हैं और जीवन के कल्याण की सच्ची विद्या सीखना चाहते हैं उन्हें इस सदी के महायोगी दिगम्बर जैन आचार्य विद्यासागर महाराज के जीवन और दर्शन अवश्य देखकर ,पढ़कर और जीकर सीखना चाहिए ।
मुझे बहुत ही छोटी बाल्य अवस्था में अपने पूज्य पिताजी वरिष्ठ मनीषी प्रो फूलचंद जैन प्रेमी जी एवं विदूषी माँ डॉ मुन्नीपुष्पा जैन जी के साथ पपौरा चतुर्मास के समय उन्हें आहार देने का प्रथम बार सौभाग्य प्राप्त हुआ था ।
उन दिनों मैं आचार्य श्री का मतलब ही आचार्य विद्यासागर समझता था । अन्य आचार्य भी हैं ये मुझे बहुत बाद में समझ आया ।उसके बाद कई बार उनका सानिध्य प्राप्त हुआ । कुंडलपुर में उन्होंने मेरे पिताजी की शोध पुस्तक ' मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ' की ससंघ वाचना भी की थी । वाचना के अनन्तर उन्होंने उसकी बहुत प्रशंसा की ।
मुझे स्मरण है कि एक बार आपका चातुर्मास पपौरा तीर्थ क्षेत्र पर चल रहा था ,मेरी अवस्था उस समय चार या पांच वर्ष की रही होगी |मैं अपने पिताजी माता जी के साथ वहां गया |पिताजी ने उनके पडगाहन हेतु मुझे भी एक नारियल देकर खड़ा कर लिया | मैंने कभी किन्हीं मुनिराज को आहार नहीं दिए थे ,विधि का ज्ञान नहीं था | सौभाग्य से आचार्य श्री हमारे चौके पर ही आ गए | उनके पडगाहन में अत्रो अत्रो कहना होता है ,मुझसे यह उच्चारण बन नहीं रहा था अतः मैंने अत्तो अत्तो कहा ,तो कई लोग मुझे टोकने लगे कि सही बोलो ,तब आचार्य श्री ने उन्हें इशारे से रोका और कहा उसे ऐसे ही बोलने दो कोई दिक्कत नहीं है,बाद में उन्होंने कहा कि यह सही बोल रहा था ,प्राकृत में ऐसे ही होता है | आहार देते समय कोई न कोई प्रतिज्ञा लेनी होती है ,साथ में खड़े किसी सज्जन ने कहा रात्रिभोजन छोड़ दो ,तो मैंने तुरंत हाँ कह दिया | आचार्य श्री ने ऊँगली से १ दिखाते हुए इशारा किया ,तब किसी ने कहा कि अभी मात्र १ माह के लिए त्याग करो | मैंने जैसा कहा वैसा किया | वे जानते थे कि अभी बालक है ,पूरा कर नहीं पायेगा ,अतः अभी थोडा थोडा अभ्यास करो,उनके वात्सल्य से मैं अभिभूत हो गया |
गढ़ाकोटा पंचकल्याणक के अवसर पर मैंने उन्हें अपने द्वारा संपादित प्राकृत भाषा में प्रकाशित होने वाला प्रथम समाचार पत्र 'पागद- भासा' समर्पित किया तो वे गदगद हो गए और बहुत आशीर्वाद दिया ।
मुझे स्मरण है जब उनका प्रवास गंजबासौदा में था तब वहां उनके सान्निध्य में एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया ,प्रातः काल का सत्र बहुत सघन था ,समय कम था ,किन्हीं एक या दो विद्वानों को मात्र पांच मिनट का ही उद्बोधन देना था | मुख्यमंत्री शिवराज जी भी वहां आ गए थे ,उनका भी उद्बोधन होना था,आचार्य श्री का प्रवचन भी होना था |संयोजक डॉ.सुरेन्द्र भारती जी ने मेरा चयन किया और सबसे पहले मुझे बोलने को कह दिया | पहले तो मैं थोडा असहज हुआ फिर सोचा जब आचार्य प्रवर की छत्र छाया है तो क्या घबडाना | आचार्य श्री एवं मुख्यमंत्री जी के समक्ष मैंने मात्र पांच मिनट तीर्थसंरक्षण पर अपने विचार प्रस्तुत किये तो तुरंत एक ब्रह्मचारी जी ने आकर मुझसे कहा कि आचार्य श्री आपको अपने पास बुला रहे हैं |मैं उनके पास गया तो उन्होंने बहुत आशीर्वाद दिया और कहा कि कार्यक्रम के बाद कक्ष में आना |मंच पर मुख्यमंत्री जी ने भी मेरी पीठ थपथपाई |बाद में मैं कक्ष में गया तो आचार्य श्री ने बहुत प्रोत्साहित किया और महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देश भी दिए |
कुछ समय बाद विदिशा के शीतलधाम में आपका चातुर्मास हुआ | वहां एक तत्त्वज्ञान संगोष्ठी का आयोजन हुआ |इस संगोष्ठी में किसी विद्वान् को कोई भाषण नहीं देना था ,मात्र जिज्ञासा रखनी थी और आचार्य श्री उसका समाधान देते थे |प्रातःकाल ४ बजे एक हाल में पूरा संघ और विद्वान् बैठते थे और चर्चा होती थी ,मुझे वह दृश्य आज भी आँखों में झूलता है |वहां बैठ कर मुझे ऐसा लगता था मानो मैं समवशरण में हूँ और आचार्य श्री की दिव्यध्वनि खिर रही हो | वह आनंदकारी दृश्य तो मैं जीवन भर नहीं भुला सकता |
अभी कुछ वर्षपूर्व पिताजी ने उन्हें अपनी पुस्तक ' श्रमण संस्कृति और वैदिक व्रात्य ' भेंट की तो उन्होंने उसे मंच पर ही पूरा पढ़ डाला और उनसे कहा कि आप इस महत्त्वपूर्ण विषय पर और सामग्री एकत्रित कीजिये |
आज भारत सरकार ने जिस नई शिक्षा नीति की घोषणा की है उसकी सलाहकार समिति में आचार्य श्री का होना ,सरकार और राष्ट्र का उनके विचारों के प्रति समर्पण को दर्शाता है | सरकार ने शिक्षा में भारतीय भाषाओँ को जो महत्त्व प्रदान किया है उसमें आचार्य श्री की दूरदृष्टि के दर्शन होते हैं |
अभी फरवरी के प्रथम सप्ताह में ही मेरे माता पिता दोनों उनके दर्शनार्थ डूंगरगढ़ गए तो अस्वस्थता के बाद भी उन्होंने पिताजी के साथ थोड़े समय तत्त्वचर्चा की । पिताजी उनसे चर्चा करके आस्वस्त थे कि वे अब स्वस्थ्य हो जाएंगे । किन्तु विश्वास ही नहीं हो रहा कि इतनी जल्दी उनकी समाधि का समाचार सुनने को मिल जाएगा ।
उनके जाने के बाद वह सूना पाटा देखता हूँ जिस पर पीछे भारत का नक्शा है,भारत लिखा है ,चरखा बना हुआ है , मातृभाषा लिखा हुआ है तो लगता है कि वे चले गए लेकिन पूरे राष्ट्र के लिए स्वावलंबन का सूत्र दे गए हैं -
सुणरट्ठो सुणभरहो सिघ्घं सूणसिंहासणसंदेसं |
सावलंबणसुत्तं हहकरघाभारदभासा च ||
सुनो राष्ट्र ! ,सुनो भारत ! (आचार्य विद्यासागर जी के बिना अब) सूने पड़ चुके इस सिंहासन का संदेश भी शीघ्र सुनो ! कि हथकरघा, मातृभाषा और भारत नाम ये देश के स्वावलबन के मूलसूत्र हैं ।
वे हाइकू काव्य विधा के भी कवि थे । अतः उनकी समाधि पर मैं अपने जीवन का प्रथम ‘हाइकू’ समर्पित करके उन्हें अपनी विनयांजलि अर्पित करता हूँ -
"विद्यासागर
अनुभव गागर
नमन तुम्हें"
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