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जिनवाणी के युवा सपूतों का अकस्मात वियोग : कारण सोचना तो पड़ेगा

प्रिय मित्र पंडित संजीव गोधा के अनंतर 11/03/23 की रात्रि प्रिय अनुज पंडित धर्मेंद्र शास्त्री,कोटा के वियोग का यह अत्यंत दुखद प्रसंग हमें  वैराग्य के साथ साथ पुनः अनुसंधान पर विवश कर रहा है । 

कहना नहीं चाहते लेकिन कहना पड़ रहा है । दोनों ही विद्वानों का युवा अवस्था में वियोग का साक्षात निमित्त अस्वस्थ्यता है । 

ऐसी स्थिति में मैं स्वयं के प्रति संबोधन को सम्मिलित करते हुए अपने सभी विद्वान साथियों से कुछ कहना चाहता हूं ।

ये जो कुछ हो रहा है अप्रत्याशित है । इसलिए हमें कई चीजें नए तरीके से व्याख्यायित करनी पड़ेंगी । 

यह इक्कीसवीं सदी का चमत्कार ही है कि आज मात्र कुछ संस्थाओं की बदौलत मूल शास्त्रों को पढ़कर प्रतिभाशाली शास्त्री विद्वान जैन समाज को मिल रहे हैं । 

ये वो पीढ़ी है जो अपने जीवन का दांव लगाकर भी शास्त्र सेवा में अपने अपने स्तर पर लगी है । 

समाज से ज्यादा अपेक्षा न करें । वो जितना कर सकते हैं उतना करते हैं ,उन्हें कोसने से कोई फायदा नहीं है । इसलिए आप भी जितना कर सकते हैं उतना ही करें । अभी हम सभी को चाहिए कि अपने स्वास्थ्य की अनदेखी न करें ।

आप स्वयं महसूस करें कि आप अनमोल हीरा हैं ,इसलिए अपनी कीमत पहचानें । जैन समाज में लाखों CA , CS , Doctor ,Engineer ,IAS आदि हैं किंतु आप मुट्ठी भर हैं । 

जो कम होता है उसकी कीमत ज्यादा होती है । हमारे ऊपर कोई मुसीबत आये तो समाज दान एकत्रित करती फिरे और हमारी सहायता करे इस परावलंबन से अच्छा है आप समाज में कोई कार्य निःशुल्क न करें । आप निःशुल्क सेवा करके गौरवान्वित होते रहते हैं और करोड़पति लोग अपने कर्तव्य का विचार किये बिना,बिना किसी लिहाज के निःशुल्क सेवा लेते रहते हैं । अतः इस स्वाभिमान युक्त कार्य को पाप न समझें । 

हमने अपने प्रवचनों में आसन,प्राणायाम,ध्यान,योग,मंत्र चिकित्सा, आदि की आत्मानुभूति में बाधक होने से जमकर धज्जियां उड़ाई हैं जबकि संसार में शांति और स्वास्थ्य के लिए ये आवश्यक हैं । 

जाने अनजाने हमारा यह निषेध का स्वर हमारे पहले से ही गर्भित आलस्य को अधिक पुष्ट कर देता है और हम अंग्रेजी दवाइयां, पैथोलॉजी,डॉक्टर,अस्पताल आदि को संसार का साधक मानकर तो उनका अनुसरण करते दिखते हैं(जब कि ये मोक्षमार्ग और आत्मानुभूति के सबसे बड़े बाधक हैं ) किंतु प्राचीन और जैनाचार्य समर्थित अन्य चिकित्सा पद्धतियों को मिथ्यात्व जान उनसे बचते हैं । 

अतः हमें चाहिए कि इस दुर्लभ मनुष्य भव को किसी अहंकार या आग्रह में न भटकाकर ,समाज की चिंता किये बिना यथा संभव बचाने का पूरा प्रयास करें । 

जीवन बहु आयामी है और महत्त्वपूर्ण है । 

हम रहें या न रहें की जगह हम क्यों न रहें ? विचार करना चाहिए । तभी जिनधर्म रहेगा ।

मंच और माइक की मायावी दुनिया को यथार्थ समझने की भूल न करें । 

हम सभी आत्मा के साथ साथ आजीविका और शरीर का भी पूरा ध्यान रखें ,हाँ आसक्ति न रखें ।

आयुर्वेद और श्रावकाचार आहार विज्ञान के संतुलन की भी बहुत आवश्यकता है । यह विषय अनुसंध्येय भी है । 

इन घटनाओं ने हर दृष्टि से विचार को विवश कर दिया है । अब और नहीं ......। 

प्रिय अनुज धर्मेंद्र से मेरा परिचय 29 वर्ष पुराना था ,जब वे हमसे ठीक बाद की कक्षा में पढ़ते थे । अत्यंत कर्मठ और सेवाभावी विद्वान के रूप में उन्होंने निःस्वार्थ भाव से सेवा की । आचार्य धरसेन महाविद्यालय,कोटा में जब मैं सपरिवार गया तब उन्होंने बहुत सम्मान पूर्वक सारी व्यवस्थाएं की और मैंने विद्यार्थियों  की कक्षा लेकर उनसे परिचय भी प्राप्त किया था । उन्होंने वाराणसी में मेरे पिताजी प्रो फूलचंद जैन प्रेमी जी के सान्निध्य में स्याद्वाद महाविद्यालय से जैन दर्शन से आचार्य स्वर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण किया था । उनके परिवार को इस दुखद घड़ी को सहने की हिम्मत प्राप्त हो और उन्हें सद्गति प्राप्त हो  यही प्रार्थना है । 
ॐ अर्हं 

प्रो अनेकान्त कुमार जैन, नई दिल्ली

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