सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

साधना की सुरक्षा से भी जुड़ा है रक्षाबंधन


            
साधना की सुरक्षा से भी जुड़ा है रक्षाबंधन

डा. अनेकान्त कुमार जैन



रक्षा शब्द सुनते ही कई बातें सामने आने लगती हैं. राष्ट्र और धर्म की रक्षा ,जीवों की रक्षा ,समाज और परिवार की रक्षा,भाषा और संस्कृति की रक्षा  आदि आदि . रक्षाबंधन पर्व भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है। आम तौर पर भाई के द्वारा बहन की रक्षा और इसके लिए बहन के द्वारा भाई को रक्षा सूत्र या राखी बांधने का रिवाज ही रक्षा बंधन पर्व माना जाता है.किन्तु यह बहुत कम लोग जानते हैं कि भाई बहन के आलावा भी प्राचीन भारतीय संस्कृति में यह कई कारणों से मनाया जाता है. इस पर्व से सम्बन्धित अनेक कहानियां प्रसिद्ध हैं।
 जैन धर्म में भी यह पर्व अत्यन्त आस्था और उत्साह के साथ मनाया जाता है। यहां यह त्योहार मात्र सामाजिक ही नहीं वरन् आध्यात्मिक भी है। इस त्योहार का संबंध सिर्फ गृहस्थों से ही नहीं, मुनियों से भी है। जैन पुराणों के अनुसार, उज्जयनी नगरी में श्री धर्म नाम का राजा राज्य करता था। उसके चार मन्त्री थे जिसका नाम क्रमश:बलि, बृहस्पति,नमुचि और प्रह्लाद था। एक बार परमयोगी दिगम्बर जैन मुनि अकम्पनाचार्य अपने सात सौ मुनि शिष्यों के साथ ससंघउज्जयनी में पधारे। श्री धर्म ने इन मुनियों के दर्शन की उत्सुकता जाहिर की किन्तु चारों मंत्रियों ने मना किया। फिर भी राजा मुनियों के दर्शन को गया। जब राजा पहुंचा तो सभी मुनि अपनी ध्यान साधना में लीन थे। अत:मंत्रियों ने इसे अपमान बतलाकर राजा को भडकाने का प्रयास किया। मार्ग में उनकी मुलाकात श्रुतसागरमुनिराजसे हो गई। श्रुतसागरमुनि अगाध ज्ञान के धनी थे। मंत्री उनसे शास्त्रार्थ करने लगे किन्तु राजा के सामने ही मंत्री पराजित हो गए। अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए रात्रि में मंत्रियों ने ध्यानस्थ उन्हीं मुनि के ऊपर तलवार से जैसे ही प्रहार किया उनके हाथ उठे के उठे ही रह गए। श्रीधर्मने उनके इस अपराध पर उन्हें देश से निकाल दिया।
चारों मंत्री अपमानित होकर हस्तिनापुर के राजा पद्म की शरण में आए। वहां बलि ने राजा के एक शत्रु को पकडवाकर राजा से मुंहमांगा वरदान प्राप्त कर लिया तथा समय पर वरदान लेने को कह दिया। कुछ समय बाद उन्हीं मुनि अकम्पनाचार्यका सात सौ मुनियों का संघ विहार करते हुए हस्तिनापुर पहुंचा तथा वहीं चातुर्मास स्थापित किया। बलि को अपने अपमान का बदला लेने का विचार आया। उसने राजा से वरदान के रूप में सात दिन के लिए राज्य मांग लिया। राजा को सात दिन के लिए राज्य देना पडा। राज्य पाते ही बलि ने जिस स्थान पर सात सौ मुनि तथा उनके आचार्य साधना कर रहे थे उसके चारों तरफ एक ज्वलनशील बाडा खडा किया और उसमें आग लगवा दी। लोगों से कहा कि वह पुरुषमेघयज्ञ कर रहा है। अन्दर धुआं भी करवाया। इससे ध्यानस्थ मुनियों के गले फटने लगे, आंखें सूज गई और ताप से अत्यधिक कष्ट हुआ।
 इतना कष्ट होने पर भी वीतरागी मुनियों ने अपना धैर्य नहीं तोडा, उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक यह उपसर्ग (कष्ट) दूर नहीं होगा तब तक अन्न जल का त्याग रखेंगे। जिस दिन बलि द्वारा यह भयंकर उपसर्ग किया जा रहा था वह दिन श्रावण शुक्ल पूर्णिमा का दिन था। जब यह घटना यहां घट रही थी उसी समय मिथिला नगरी में निमित्तज्ञानी आचार्य सारचन्द तपस्या कर रहे थे, उन्हें निमित्त ज्ञान से इस घटना के बारे में पता चला। अनायास ही उनके मुख से हा! हा! निकला। उनके शिष्य क्षुल्लक पुष्पदन्त को यह सुनकर आश्चर्य हुआ। शिष्य के पूछने पर आचार्य ने निमित्त ज्ञान से प्राप्त सारी घटना बतला दी। आचार्य ने कहा कि धरणी भूषण पर्वत पर एक विष्णु कुमार मुनिराज कठोर तप कर रहे हैं, उन्हें विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हुई है। वे चाहें तो इन मुनियों के संकट को दूर कर सकते हैं अन्यथा कोई उपाय नहीं है। क्षुल्लक पुष्पदन्त आकाशगामी विद्या से तुरन्त विष्णु कुमार मुनिराज के पास पहुंच गए। सारा वृत्तान्त कह दिया। उन्हें स्वयं पता नहीं था कि उन्हें विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हुई है। इसलिए हाथ फैलाकर उन्होंने इस बात की परीक्षा ली और तत्काल हस्तिनापुर पहुंच गए।
मुनिराज विष्णु कुमार ने मुनि अवस्था को छोडकर वामन का भेष धारण किया और बलि के यज्ञ में भिक्षा मांगने पहुंच गए और बलि से तीन पैर धरती मांगी। बलि ने दान का संकल्प कर दिया तो विष्णु कुमार ने विक्रिया ऋद्धि से अपने शरीर को बहुत अधिक बढा लिया। उन्होंने अपना एक पैर सुमेरु पर्वत पर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तरपर्वत पर रखा और तीसरा पैर स्थान होने से आकाश में डोलने लगा। तब सर्वत्र हाहाकार मच गया। देवताओं तक ने विष्णु कुमार मुनि से विक्रिया को समेटने की प्रार्थना की। बलि ने भी क्षमा याचना की। उन्होंने अपनी विक्रिया को समेट लिया। बलि को देश निकाला दिया गया। सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ, उनकी रक्षा हुई।
बलि के अत्याचार से सभी दु:खी थे। लोगों ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब मुनियों का संकट दूर होगा तब उन्हें आहार करवाकर ही भोजन ग्रहण करेंगे। संकट दूर होने पर सभी लोगों ने दूध,खीर आदि हल्का भोजन तैयार किया क्योंकि मुनियों का उपवास था। मुनि केवल सात सौ थे। अत:केवल वे सात सौ घरों में ही पहुंच सकते थे। अत:शेष घरों में उनकी प्रतिकृति बनाकर और उसे आहार देकर प्रतिज्ञा पूरी की गई। सभी ने परस्पर रक्षा करने का बन्धन बांधा, जिसकी स्मृति रक्षा बन्धन त्योहार में आज तक चल रही है। इसे श्रावणी तथा सलोना पर्व भी कहते हैं। इस दिन भक्त जिन मंदिर में जाकर मुनि विष्णु कुमार तथा सात सौ मुनियों की पूजा पढते हैं। साधना और साधर्मी की रक्षा का संकल्प लेते हैं तथा मन्दिर में राखी स्त्री,पुरुष सभी बांधते हैं। इस दिन बहन तो भाई को रक्षा के लिए राखी बांधती ही है। साथ ही सभी लोग अपने राष्ट्र,धर्म, शास्त्र एवं जीव रक्षा का भी संकल्प लेते हैं। आज के दिन इस पौराणिक गाथा को भी मन्दिरों की शास्त्र सभाओं में सुनाया जाता है।वर्तमान में यह दिन संस्कृत दिवस के रूप में भी मनाया जाता है.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?

  युवा पीढ़ी को धर्म से कैसे जोड़ा जाय ?                                      प्रो अनेकांत कुमार जैन , नई दिल्ली    युवावस्था जीवन की स्वर्णिम अवस्था है , बाल सुलभ चपलता और वृद्धत्व की अक्षमता - इन दो तटों के बीच में युवावस्था वह प्रवाह है , जो कभी तूफ़ान की भांति और कभी सहजता   से बहता रहता है । इस अवस्था में चिन्तन के स्रोत खुल जाते हैं , विवेक जागृत हो जाता है और कर्मशक्ति निखार पा लेती है। जिस देश की तरुण पीढ़ी जितनी सक्षम होती है , वह देश उतना ही सक्षम बन जाता है। जो व्यक्ति या समाज जितना अधिक सक्षम होता है। उस पर उतनी ही अधिक जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों का निर्वाह वही करता है जो दायित्वनिष्ठ होता है। समाज के भविष्य का समग्र दायित्व युवापीढ़ी पर आने वाला है इसलिए दायित्व - ...

कुंडलपुर के तीर्थंकर आदिनाथ या बड़े बाबा : एक पुनर्विचार

*कुंडलपुर के तीर्थंकर आदिनाथ या बड़े बाबा : एक पुनर्विचार* प्रो अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली drakjain2016@gmail.com मैं कभी कभी आचार्य समन्तभद्र के शब्द चयन पर विचार करता हूँ और आनंदित होता हूँ कि वे कितनी दूरदर्शिता से अपने साहित्य में उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शब्द चयन पर ध्यान देते थे । एक दिन मैं अपने विद्यार्थियों को उनकी कृति रत्नकरंड श्रावकाचार पढ़ा रहा था । श्लोक था -  श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ इसकी व्याख्या के समय एक छात्रा ने पूछा कि गुरुजी ! देव ,शास्त्र और गुरु शब्द संस्कृत का भी है , प्रसिद्ध भी है ,उचित भी है फिर आचार्य ने उसके स्थान पर आप्त,आगम और तपस्वी शब्द का ही प्रयोग क्यों किया ? जब  कि अन्य अनेक ग्रंथों में ,पूजा पाठादि में देव शास्त्र गुरु शब्द ही प्रयोग करते हैं । प्रश्न ज़ोरदार था । उसका एक उत्तर तो यह था कि आचार्य साहित्य वैभव के लिए भिन्न भिन्न पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे उन्होंने अकेले सम्यग्दर्शन के लिए भी अलग अलग श्लोकों में अलग अलग शब्द प्रयोग किये हैं ।  लेकिन...

द्रव्य कर्म और भावकर्म : वैज्ञानिक चिंतन- डॉ अनेकांत कुमार जैन

द्रव्य कर्म और भावकर्म : वैज्ञानिक चिंतन डॉ अनेकांत कुमार जैन जीवन की परिभाषा ‘ धर्म और कर्म ’ पर आधारित है |इसमें धर्म मनुष्य की मुक्ति का प्रतीक है और कर्म बंधन का । मनुष्य प्रवृत्ति करता है , कर्म में प्रवृत्त होता है , सुख-दुख का अनुभव करता है , और फिर कर्म से मुक्त होने के लिए धर्म का आचरण करता है , मुक्ति का मार्ग अपनाता है।सांसारिक जीवों का पुद्गलों के कर्म परमाणुओं से अनादिकाल से संबंध रहा है। पुद्गल के परमाणु शुभ-अशुभ रूप में उदयमें आकर जीव को सुख-दुख का अनुभव कराने में सहायक होते हैं। जिन राग द्वेषादि भावों से पुद्गल के परमाणु कर्म रूप बन आत्मा से संबद्ध होते हैं उन्हें भावकर्म और बंधने वाले परमाणुओं को द्रव्य कर्म कहा जाता है। कर्म शब्दके अनेक अर्थ             अंग्रेजी में प्रारब्ध अथवा भाग्य के लिए लक ( luck) और फैट शब्द प्रचलित है। शुभ अथवा सुखकारी भाग्य को गुडलक ( Goodluck) अथवा गुडफैट Good fate कहा जाता है , तथा ऐसे व्यक्ति को fateful या लकी ( luckey) और अशुभ अथवा दुखी व्यक्ति को अनलकी ( Unluckey) कहा जाता...