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‘अहिंसा दर्शन’ यानि पारंपरिक ऊर्जा के साथ आधुनिक हस्तक्षेप

सादर प्रकाशनार्थ -पुस्तक परिचय (चित्र संलग्न )      
‘अहिंसा दर्शन’ यानि पारंपरिक ऊर्जा के साथ आधुनिक हस्तक्षेप
                             अनुराग बैसाखिया@
            डॉ.अनेकांत कुमार जैन की नयी कृति ‘अहिंसा दर्शन :एक अनुचिंतन’ विश्व शान्ति और अहिंसा पर लिखी गयी तमाम पुस्तकों में से अलग इस दृष्टि से है क्यूँ कि यह उन  सभी पुस्तकों के निष्कर्षों तथा लेखक के मौलिक चिंतन और अनुसंधान का ऐसा मेल है जो हमें उन अनुभूतियों में ले जाता है जो प्राचीन तथा अर्वाचीन आचार्यों द्वारा प्रसूत हुईं हैं | यह किताब सहजता के साथ हमें आज की मौजूदा समस्यायों और परिस्थितियों में अहिंसक होने की प्रेरणा देकर तार्किक तथा प्रायोगिक रूप से उसका समाधान बताने की एक सार्थक पहल भी करती है |पुस्तक में लेखक ने किसी किस्म के दुराग्रह से मुक्त होने की पूरी कोशिश की है किन्तु वे सत्याग्रह पर अडिग दिखाई देते हैं ....अहिंसा का सत्याग्रह |
    यद्यपि लेखक संस्कृत/प्राकृत के श्लोक/गाथा आदि के उद्धरण के कारण प्राचीन अवधारणाओ से पूर्णतः जुड़े दिखाई देते हैं और अहिंसा जैसे शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा वे सभी धर्मों तथा अधिकांश समकालीन चिंतकों के माध्यम से करते हैं फिर भी हमें यह कहना पड़ेगा कि लेखक ने वर्तमान की अनदेखी नहीं की है और अहिंसा के नाम पर फैली भ्रांतियों को दूर करने का जबरजस्त प्रयास बहुत विनम्र शब्दों में किया है|यही कारण है कि पाठक के दिल तक पहुँच कर उन्हें अपने समर्थन में खड़ा कर पाने की कोशिश में वे बहुत हद तक सफल दिखाई दे रहे हैं | विषय को क्रम बद्ध तरीके से प्रस्तुत करके पहले पूरी अवधारणा स्पष्ट की है फिर विभिन्न धर्मों तथा चिंतकों के विचारों को प्रामाणिक तरह से रखा है |जैन धर्म की अवधारणा को बहुत संजीदकी के साथ रखा है ,आध्यात्मिक अहिंसा को जिन अलफाजों में सावधानी के साथ बताया है वह हर एक के बस का नहीं है|इस अध्याय को सावधानी से पढ़ने की जरूरत है |लेखक के शास्त्रीय ज्ञान और उसकी अभिव्यक्ति की पूरी सामर्थ्य इस अध्याय में मुखरित होकर सामने आई है |हिंसा के समर्थन में जो कुतर्क दिए जाते हैं उनका सामना भी लेखक ने किया है |
     किसी सम्प्रदाय का आग्रह नहीं रख कर उदारता का परिचय दिया गया है | अहिंसा प्रशिक्षण और सामाजिक राजनैतिक जीवन में अहिंसा के प्रयोग पर भी अच्छा विमर्श किया है | परिशिष्ट में भी आतंकवाद तथा शाकाहार पर नई दृष्टि देने का प्रयास किया गया है | कुल मिला कर यह किताब पारंपरिक उबाउपन और अनावश्यक प्रलापों से कोसों दूर है तथा पारंपरिक ऊर्जा के साथ आधुनिक हस्तक्षेप करके सरल भाषा और शैली में गंभीर संवाद के कारण आज की जरूरत के मुताबिक एक प्रेरणास्प्रद प्रयास है |यह पुस्तक नयी पीढ़ी के युवाओं को तो जरूर ही पढनी चाहिए|उन्हें कुछ नया जरूर मिल सकता है |
    बहराल लगभग दो सौ पृष्ठों वाले इस ग्रन्थ की शुभाशंसा में प्रख्यात साहित्यकार प्रो.राधाबल्लभ त्रिपाठी जी ने जो लिखा है मेरी उससे पूर्ण सहमति है -
“आधुनिक युग के सामाजिक जीवन में अहिंसा के विभिन्न प्रयोगों की सार्थकता को दर्शाते हुए विचारक जगत को चिंतन हेतु कुछ नए बिंदु भी दिए हैं जो इस ग्रन्थ की मौलिकता को रेखांकित करते हैं. नए पीढ़ी के मध्य अहिंसा की आस्था को स्थापित करने के लिए यहाँ एक सार्थक हस्तक्षेप है जो प्राचीन मूल्यों को युगानुरूप नयी दिशा देने में सफल है . आशा है विश्वशांति की स्थापना में प्रयत्नशील वैचारिक और प्रायोगिक जगत में इस कृति का स्वागत होगा.”  लेखक की शैली की बानगी के लिए भी यहाँ प्रस्तुत हैं इस पुस्तक के कुछ चयनित अंश-
..............@“हम इतने संवेदनहीन और स्वार्थी कैसे हो रहे हैं कि तड़फते जीवों को देख कर अब हमारी आँखें नम  नहीं होतीं | हम बड़ी से बड़ी दुर्घटना देखकर भी तब तक नहीं रोते जब तक कि इससे हमारा कोई सगा पीड़ित ना हुआ हो |”….......... अहिंसा दर्शन, पृष्ठ, xiii
............@“प्रायः अहिंसा को जीवों को साक्षात् ना मारने तक सीमित कर दिया जाता है | अनैतिकता ,भ्रष्टाचार, चोरी, शोषण,घृणा ,इर्ष्या,द्वेष ,वैमनस्क्य,वासना ,आसक्ति और दुराग्रह जीवन में पलते रहें और अहिंसा भी साधती रहे क्या यह संभव है ?जीवों को ना मारना अहिंसा है किन्तु उसकी इयत्ता यहीं तक नहीं है ,जो लोग अहिंसा को सीमित अर्थ में देखते हैं ,उन्हें किसी चींटी के मरने पर पछतावा हो सकता है ,किन्तु दूसरों को ठगने को या उन पर झूठे केस चलाने या उनका शोषण करने में उन्हें कोई पछतावा नहीं होता “......अहिंसा दर्शन पृष्ठ, १२३ 
...........@“अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ती के लिए दूसरों का बड़ा से बड़ा अहित करने में उन्हें हिंसा का अनुभव नहीं होता |यह किस प्रकार की अहिंसा है ?ऐसा लगता है कि हमने अहिंसा को मात्र स्वार्थी बना दिया है |जहाँ सिर्फ स्वार्थ का प्रश्न होगा वहाँ मनुष्य को हिंसा करने में संकोच नहीं होता और जहाँ स्वार्थ में बाधा नहीं पहुँचती ,वहाँ अहिंसा का अभिनय किया जाता है |यह अहिंसा सिद्धांत के प्रति अन्याय है |यदि हम अपने सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार से प्रायोगिक अहिंसा को अपनाएं तो शांति के लक्ष्य को आसानी से प्राप्त किया जाता है | “ ......अहिंसा दर्शन पृष्ठ, १२३
..........@“नारायण श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को युद्ध करने को चंद श्लोकों में जो कहा वह पूरी दुनिया को याद हो गया ;किन्तु गीता और महाभारत के सम्पूर्ण अध्यायों में उन्होंने अहिंसा धर्म की जो विशद व्याख्या की वह कुछ ही लोग पढते और सुनते हैं |  “अहिंसा परमो धर्मः” – यह महाभारत का वाक्य है किन्तु इसे महाभारत के सन्देश के रूप में प्रचारित और प्रसारित नहीं किया जाता | यह हमारी हिंसा के प्रति आस्था और रूचि को दर्शाता है |”......अहिंसा दर्शन पृष्ठ, १७०
      इसके अलावा भी अनेक स्थलों पर सोचने को विवश करने वाले वाक्य इस पुस्तक में भरे पड़े हैं यह मुनासिब नहीं कि उन सबको मैं यहाँ उद्धृत कर सकूँ | उसके लिए तो पुस्तक पढ़ना ही बेहतर होगा |
         इस पुस्तक का गरिमामय सुन्दर प्रकाशन भारत सरकार द्वारा किया गया है | सुखद समाचार यह है कि इस पुस्तक को JIN FOUNDATION ,NEW DELHI के प्रयास से  मुनिराजों तथा विद्वानों को निःशुल्क भेंट किया जा रहा है तथा मांग आने पर अन्य रुचिवंत पाठकों तथा पुस्तकालयों को कम कीमत पर रजिस्टर्ड डाक खर्च सहित मात्र 125/-Rs में प्रेषित किया जा रहा है | यदि कोई इस पुस्तक को अपनी तरफ से वितरित कराना चाहे या स्वयं के लिए मंगाना चाहे तो इसकी प्राप्ति हेतु 09868098396 पर संपर्क किया जा सकता है |
 ग्रन्थ – अहिंसा दर्शन : एक अनुचिंतन  ISBN -8187987510
लेखक –डॉ अनेकान्त कुमार जैन
प्रकाशक - श्रीलालबहादुरशास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत   विद्यापीठ
मानव संसाधन विकास मंत्रलायाधीन मानितविश्वविद्यालय,
कटवारियासराय,नई दिल्ली -११००१६
मूल्य – १६० /-मात्र {सजिल्द}, पृष्ठ- 179+27=206
 


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