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जैनधर्म के आराध्य वीतरागी भगवान् हनुमान (अणुमान)

जैनधर्म के आराध्य 
वीतरागी भगवान् हनुमान (अणुमान)
प्रो अनेकान्त कुमार जैन 

जैन परंपरा में वीतरागी भगवान् हनुमान (अणुमान) रत्नत्रय की साधना करते हुए मोक्षमार्ग पर चलते हुए कैवल्य ज्ञान को प्राप्त कर  मोक्षपद को प्राप्त हुए है । 

पद्मपुराण में वर्णन आता है कि श्री हनुमान
विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित आदित्यपुर नगर के राजा प्रह्लाद और रानी केतुमती के पौत्र तथा वायुगति (अपर नाम पवनंजय ) तथा महेंद्र नगर के राजा महेंद्र की पुत्री अंजना के पुत्र थे । 

इसका जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन रात्रि के अंतिम प्रहर में पर्यंक गुहा में हुआ था ।

 हनुरुहद्वीप के निवासी प्रतिसर्य विद्याधर इनके  नाना थे । ये अपने नाना के घर जाते हुए विमान से नीचे गिर गए थे । इनके गिरने से शिला चूर-चूर हो गयी थी किंतु इन्हें चोट नहीं आई थी । यह शिला पर हाथ-पैर हिलाते हुए मुंह में अँगूठा देकर खेलता रहे  । श्रीशैल पर्वत पर जन्म होने तथा शिला के चूर-चूर हो जाने से माता ने इसे श्रीशैल तथा हनुरूह नगर में जन्म संस्कार होने से हनुमान् कहा था । 

हनुरुद्वीप नाम का
 एक द्वीप था । यहाँ हनुमान की माता अंजना के मामा प्रतिष्ठ का राज्य था । हनुमान् का यहाँ जन्म संस्कार हुआ था । इसीलिए इस द्वीप के नाम पर अनुमान का ‘हनुमान’ नामकरण हुआ था ।इसका अपर नाम अणुमान् था । 

यह रावण की सहायता के लिए लंका गया थे वहाँ इन्होंने वरुण राजा के सौ पुत्रों को बांध लिया था ।

 चंद्रनखा की पुत्री अनंगपुष्पा, किष्कुपुर नगर के राजा नल की पुत्री हरिमालिनी और किन्नर जाति के विद्याधरों की अनेक कन्याओं से इनका विवाह हुआ था । 

इनकी एक हजार से भी अधिक स्त्रियाँ थीं । सीता जी के पास राम का संदेश ये ही लंका ले गये थे ।

 राम की ओर से इन्होंने युद्ध कर बाली को मारा था । कुंभकर्ण द्वारा बाँध लिए जाने पर अवसर पाकर यह बंधनों से मुक्त हो गए थे । रावण की विजय के पश्चात् अयोध्या आने पर राम ने इन्हें श्री पर्वत का राज्य दिया था ।

 अंत में मेरु वंदना को जाते समय उल्कापात देखकर ये विरक्त हो गया थे और चारण ऋद्धिधारी धर्मरत्न मुनि से इन्होंने नग्न दिगम्बर मुनि दीक्षा ले ली थी । बहुत समय तक वीतरागता पूर्वक नग्न दिगम्बर साधना करने के पश्चात् ये उसी भव से मोक्ष को प्राप्त हुए । 

 इन्हें मांगीतुंगी पर्वत (महाराष्ट्र) से निर्वाण की प्राप्ति हुई थी अतः वह स्थान एक सिद्ध तीर्थ क्षेत्र के रूप में जैन परंपरा में श्रद्धा का बहुत बड़ा केंद्र है ।

कुछ और रोचक तथ्य :

1. हनुमानजी 18 वें कामदेव थे वह बंदर नहीं थे, बल्कि वानर वंशी थे ।

2. जैन रामायण (पद्मपुराण) के अनुसार इनके वंश के राज्य ध्वज में बंदर का चिन्ह था, इसलिए इनका कुुल वानर वंश के नाम से विख्यात है ।

3. उनके न ही बंदर जैसा मुंह था, न ही पूंछ थी, उनका रंग रूप वानर जैसा नहीं था । 

4. वह विद्याधारी थेे। विद्या के बल पर उन्होंने लंका में वानर का रूप रचा था । 

यद्यपि हनुमान जी का वर्णन जो बाल्मीकि रामायण और तुलसी कृत रामचरित मानस में किया गया है वह कुछ भिन्नता लिए हुए है किंतु वर्तमान में वह ही स्वरूप जनमानस के मन मस्तिष्क और श्रद्धा में बसा हुआ है । किंतु अनुसंधान पूर्वक यदि गंभीरता से विचार किया जाय तो जैन परंपरा में वीतरागी भगवान् हनुमान जी का व्यक्तित्त्व कहीं अधिक उत्कृष्ट और महान् मिलता है । 

यह भी निष्कर्ष निकलता है कि श्री हनुमान भारतीय संस्कृति के एक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्हें वैदिक और श्रमण दोनों  ही परंपराएं अपने अपने तरीके से श्रद्धा के उच्च आसन पर उन्हें प्रतिष्ठित करके उन्हें अपना आदर्श मानती हैं ।

प्रमाण हेतु देखें 
देखें आचार्य रविषेण कृत पद्मपुराण -( पर्व/ श्लोक संख्या )

पर्व 15/6-8 ,13-16, 220, 
पर्व 16/219,       
पर्व 17/141-162, 213, 307, 344-346, 361-364, 382-393, 402-403

पर्व 19/13-15, 59, 101-108, 
पर्व 53/26, 50-55, 
पर्व 60/28, 116-118,
पर्व88/39,   
पर्व 112/24, 75-78,
पर्व113/24-29, 44-45

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