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एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है


एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है

वास्तव में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है । उनमें परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध अनादि से हैं और निमित्त को व्यवहार से कर्ता कह दिया जाता है । 'यः परिणमति स कर्ता' ,  प्रत्येक द्रव्य अपने अपने स्वभाव रूप ही परिणमन करते हैं ,अतः वे कर्ता हैं और पर में कुछ भी परिणामित नहीं होते अतः उनके वे कर्ता नहीं हैं। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है ।

तिण्हं सद्दणयाणं...ण कारणस्स होदि; सगसरूवादो उप्पण्णस्स अण्णेहिंतो उप्पत्तिविरोहादो।

तीनों शब्द नयों की अपेक्षा कषायरूप कार्य कारण का नहीं होता, अर्थात् कार्यरूप भाव-कषाय के स्वामी उसके कारण जीवद्रव्य और कर्मद्रव्य कहे जा सकते हैं, सो भी बात नहीं है, क्योंकि कोई भी कार्य अपने स्वरूप से उत्पन्न होता है। इसलिए उसकी अन्य से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है।

(कषायपाहुड़/1/283/318/4)


कुव्वं सभावमादा हवदि कित्ता सगस्स भावस्स। पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाण।।
  
अपने भाव को करता हुआ आत्मा वास्तव में अपने भाव का कर्ता है, परंतु पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावों का कर्ता नहीं है।

(प्रवचनसार/184)


भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भवकारणं भवदि। ण दु तेसिं खलु कत्ताण विणा भूदा दु कत्तारं।।

(पंचास्तिकाय/60)

=जीवभाव का कर्म निमित्त है और कर्म का जीव भाव निमित्त है। परंतु वास्तव में एक दूसरे के कर्ता नहीं हैं। कर्ता के बिना होते हों ऐसा भी नहीं है। (क्योंकि आत्मा स्वयं अपने भाव का कर्ता है और पुद्गल कर्म स्वयं अपने भाव का|61-62|)।


इदमत्र समाधानं कर्ता य: कोऽपि स: स्वभावस्य। परभावस्य न कर्ता भोक्ता वा तन्निमित्तमात्रेऽपि।

(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/576)

जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभाव का ही कर्ता है किंतु परभाव में निमित्त होने पर भी, परभाव का न कर्ता है और न भोक्ता।


कोऽपि कस्यापि कर्तास्ति नोपकारापकारयो:। उपकुर्वेऽपकुर्वेऽहं मिथ्येति क्रियते मति:।।

(योगसार/अमितगति/4/13)

इस संसार में कोई जीव किसी अन्य जीव का उपकार या अपकार नहीं कर सकता। इसलिए ‘मैं दूसरे का उपकार या अपकार करता हूँ’ यह बुद्धि मिथ्या है।



पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्‍यवहारनयेन जीवस्‍य शरीरवाङ्​मन:प्राणापानादिगतिस्थित्‍यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वन्‍तीति कारणानि भवन्ति। जीवद्रव्‍यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्‍यादिरूपेण परस्‍परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपञ्चद्रव्‍याणां किमपि न करोतीत्‍यकारणम्‍​ ।

पुद्​गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्‍य जीव का उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किन्‍तु जीव सत्तास्‍वरूप है उनका कारण नहीं है।३४।

 उपरोक्त पाँचों द्रव्‍यों में से व्‍यवहार नय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्‍वास, नि:श्‍वास आदि कार्य तो पुद्​गल द्रव्‍य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तनारूप कार्य क्रम से धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुद्​गलादि पाँच द्रव्‍य कारण हैं। जीव द्रव्‍य यद्यपि गुरु शिष्‍य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है, फिर भी पुद्​गल आदि पाँचों द्रव्‍यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है।
(द्रव्यसंग्रह/टीका/अधिकार २ की चूलिका/७८/२)

प्रो अनेकांत कुमार जैन 
14/5/24

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