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कुतुबमीनार :सूर्यस्तम्भ ,सूर्यमेरु या सुमेरु?

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सादर प्रकाशनार्थ 

कुतुबमीनार :सूर्यस्तम्भ ,सूर्यमेरु ,सालु या सुमेरु ?

प्रो अनेकान्त जैन,नई दिल्ली

वर्तमान में कुतुबमीनार एक चर्चा का विषय बना हुआ है । 
लगभग एक वर्ष पहले नेशनल मोन्यूमेंट ऑथोरिटी ऑफ इंडिया , भारत सरकार द्वारा दिल्ली के सम्राट अनंगपाल पर आधारित नेशनल सेमिनार में मैंने कुतुबमीनार को केंद्र में रखते हुए , जैन कवि बुध श्रीधर की अपभ्रंश रचना पार्श्वनाथ चरित के आधार पर इस परिसर का साक्षात निरीक्षण  किया था और कई फ़ोटो ग्राफ्स के आधार पर अपना शोधपत्र वहां प्रस्तुत किया और वहां उपस्थित सभी इतिहासकारों, पुरातत्त्ववेत्ताओं और सांसदों ,मंत्रियों के मध्य कुतुबमीनार के जैन इतिहास और सांस्कृतिक महत्त्व को समझाया था । 

निश्चित रूप से कुतुब परिसर भारतीय संस्कृति का एक बहुत बड़ा केंद्र था जिसे मुगल आक्रांताओं ने नष्ट भ्रष्ट कर दिया । इस बात की गवाही स्वयं उनके ही द्वारा लिखे गए और जड़े गए शिलालेख देते हैं ।

कुतुबमीनार के साथ बनी कुव्वत-उल-इस्लाम नामक मस्जिद के मुख्य द्वार पर अरबी भाषा में लिखा एक अभिलेख (शिलालेख) लगा हुआ है। जिसमें कुतुबुद्दीन ऐबक ने लिखवाया है -

*ई हिसार फतह कर्दं ईं मस्जिद राबसाखत बतारीख फीसहोर सनतन समा व समानीन वखमसमत्य अमीर उल शफहालार अजल कबीर कुतुब उल दौल्ला व उलदीन अमीर उल उमरा एबक सुलतानी अज्ज उल्ला अनसारा व बिस्ती हफत अल बुतखाना मरकनी दर हर बुतखाना दो बार हजार बार हजार दिल्लीवाल सर्फ सुदा बूददरी मस्जिद बकार बस्ता सदा अस्त॥*

अर्थात् हिजरी सन् ५८७ (११९१-९२ ईसवी सन्) में कुतुबुद्दीन ऐबक ने यह किला विजय किया और सूर्यस्तम्भ के घेरे में बने २७ बुतखानों (मन्दिरों) को तोड़कर उनके मसाले से यह मस्जिद बनवाई। ये मन्दिर एक-से मूल्य के थे। एक-एक मन्दिर २०-२० लाख दिल्लीवाल (दिल्ली में बने सिक्के का नाम) की लागत से बना हुआ था।

इतिहासकार श्री केदारनाथ प्रभाकर जी को मस्जिद के पश्चिमी भाग की दीवार पर बाहर की ओर एक प्रस्तर खण्ड पर एक त्रुटित अभिलेख देखने को मिला। उसके कुछ पद इस प्रकार पढ़े गये थे - *सूर्यमेरुः पृथिवी यन्त्रै मिहिरावली यन्त्रेण*|

 यहाँ इसे सूर्यमेरु नाम से अभिहीत किया गया है | कुछ विद्वान इसे खगोल विद्या से सम्बंधित ज्योतिष केंद्र के रूप में देखते हैं जिसका सम्बन्ध वराहमिहिर से तक जोड़ते हैं ।

जैनाचार्य द्वारा हरिवंश पुराण में जैन भूगोल में वर्णित सुमेरु पर्वत के २५ नाम गिनाये हैं जिसमें सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयंप्रभ, और सूरगिरि-ये नाम भी हैं -
    *सूर्याचरणविख्याति: सूर्यावर्त: स्वयंप्रभ:।*
    *इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धवर्णै: स वर्णित:।।*

11-12वीं शती के कवि बुधश्रीधर अपनी अपभ्रंश रचना पासणाहचरिउ में वर्तमान में कुतुबमीनार नाम से जाना जाने वाले सूर्यस्तम्भ/सुमेरू पर्वत को *सालु* नाम से संबोधित करके वर्णन करते हुए लिखते हैं कि -
ढिल्ली-पट्टन में गगन मंडल से लगा हुआ साल है ,जो विशाल अरण्यमंडप से परिमंडित है, जिसके उन्नत गोपुरों के श्री युक्त कलश पतंग (सूर्य) को रोकते हैं ,जो जल से परिपूर्ण परिखा (खाई ) से आलिंगित शरीर वाला है -

*जहिँ गयणमंडलालग्‍गु सालु रण- मंडव- परिमंडिउ विसालु ।।*
*गोउर- सिरिकलसाहय-पयंगु जलपूरिय- परिहालिंगियंगु।।*

जैन आगमों में सुमेरु पर्वत का वर्णन किया गया है | उसके अनुसार जम्बूद्वीप १ लाख योजन विस्तृत थाली के समान गोलाकार है। यह बड़ा योजन है, इसमें बीचों बीच में सुमेरुपर्वत है। पृथ्वी में इसकी जड़ १००० योजन मानी गई है और ऊपर ४० योजन की चूलिका है। सुमेरु पर्वत १० हजार योजन विस्तृत और १ लाख ४० योजन ऊँचा है। सबसे नीचे भद्रशाल वन है, इसमें बहुत सुन्दर उद्यान-बगीचा है। नाना प्रकार के सुन्दर वृक्ष फूल लगे हैं। यह सब वृक्ष, फल-फूल वनस्पतिकायिक नहीं हैं प्रत्युत् रत्नों से बने पृथ्वीकायिक है। इस भद्रसाल वन में चारों दिशा में एक-एक विशाल जिनमंदिर है। इनका नाम है त्रिभुवन तिलक जिनमंदिर। उनमें १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।

सम्राट अनंगपाल जैनधर्म को बहुत महत्त्व देता था । उसने सुमेरूपर्वत की कृत्रिम रचना (कुतुबमीनार) के आस पास त्रिभुवन तिलक जिन मंदिर बनवाने में बहुत सहयोग किया था इसलिए बुधश्रीधर अनंगपाल की प्रशंसा में उन्हें *त्रिभुवनपति* की उपाधि देते हैं ।
 वे अपने ग्रंथ की प्रशस्ति में यह कहते हैं कि यहाँ एक विशाल नाभेय मंदिर है अर्थात पिता नाभिराज के पुत्र  प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव का एक विशाल जैन मंदिर है जहाँ रहकर मैंने चन्द्रप्रभ चरित की रचना की क्यों कि इसी स्थान पर तीर्थंकर चंद्रप्रभ की प्रतिमा का बहुत बड़ा प्रतिष्ठा समारोह हुआ है । 

चंडीगड़ से प्रकाशित डेली ट्रिब्यून 24/8/1976 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार कुतुबमीनार के जीर्णोद्धार के समय भी वहां अप्रत्याशित रूप से जैन तीर्थंकरों की 20 मूर्तियां और एक मूर्ति भगवान विष्णु की प्राप्त हुई थीं । इस लेख के अनुसार परिसर में जहां लोहे की लाट लगी हुई है वहाँ जैनियों का बावन शिखरों वाला एक भव्य जैन मंदिर था । 

जैन परंपरा में नंदीश्वर द्वीप और उसके बावन जिनालय बनाने की परंपरा है ,संभवतः ये बावन शिखर इसी के रहे हों । इससे इस बात को भी बल मिलता है कि यहाँ जैन परम्परा सम्मत नंदीश्वर द्वीप की रचना भी रही होगी ।

कुतुबमीनार परिसर के चारों तरफ जगह जगह खंभों पर ,तोरण द्वारों पर, सुंदर नक्काशीदार छतों पर कई तीर्थंकरों की कई प्रतिमाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं ।  जिनके चित्र मेरे पास हैं । 
यहाँ तक कि मस्जिद का जो प्रवेश द्वार है जहाँ कुतबुद्दीन ऐबक ने शिलालेख जुड़वाया है वह भी उसी नाभेय जिनालय का प्रवेश द्वार है जिसकी चर्चा जैन कवि बुध श्रीधर करते हैं । 

जहाँ तक ज्योतिष,खगोल और बेधशाला का सवाल है तो उसकी संभावना भी इसलिए है क्यों कि सुमेरु पर्वत एक बहुत बड़ी शास्त्रीय खगोलीय रचना ही है और उसकी कृत्रिम रचना का निर्माण बहुउद्देशीय होता है , न कि सिर्फ पूजा पाठ के लिए ।

जैन परंपरा में धार्मिक दृष्टि से भी नंदीश्वर द्वीप,जम्बूद्वीप आदि खगोल- भूगोल की कृत्रिम रचनाएं शास्त्रीय आधार पर प्रतीक स्वरूप निर्माण करने की बहुत प्राचीन परंपरा रही है ।यह परंपरा आज भी चल रही है । देश के कई स्थानों और तीर्थों पर नंदीश्वर द्वीप,अढ़ाई द्वीप, जम्बू द्वीप आदि की कृत्रिम रचनाएं आज भी निर्मित की जाती हैं । वर्तमान में भी हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप निर्मित किया गया है जिसमें सुमेरु पर्वत की सुंदर रचना मौजूद है । 


जैन मंदिर हमेशा से ज्ञान विज्ञान के बहुत बड़े केंद्र रहे हैं । शास्त्रों में जिन मंदिर निर्माण की रचना बहु उद्देशीय बतलाई गई है । 

मेरा स्पष्ट मानना है कि यदि निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो वर्तमान का कुतुब परिसर जैन संस्कृति का एक बहुत बड़ा केंद्र था जहाँ ज्ञान विज्ञान के सारे संसाधन निर्मित किये गए थे और उसका उपयोग खगोल विज्ञानी,भूगोल विज्ञानी ,ज्योतिषी और मौसम विज्ञानी आदि सभी लोग करते थे । कुतबुद्दीन ऐबक ने मंदिर तो तोड़ दिए किन्तु यह सुमेरू पर्वत नहीं तोड़ा क्यों कि यह वास्तु शिल्प का अद्वितीय नमूना था और इस पर खड़े होकर वह अपने दुश्मनों पर नज़र रखने का कार्य भी आसानी से करवाता था । मात्र इसमें विराजित प्रतिमाओं को तोड़कर और इसके बाहरी हिस्से पर अरबी में लिखित टाइलों को लगाकर इसका इस्लामीकरण करके उसने इसका नाम अपने नाम के आधार पर प्रचलित करवा दिया और इसीलिए पिछले एक हज़ार साल से हम इसे कुतुबमीनार नाम से पुकार रहे हैं । 

drakjain2016@gmail.com

Prof Dr Anekant Kumar Jain ,Ex HOD ,Deptt of Jain Philosophy,Shri Lalbahadur Shastri National Sanskrit University,New Delhi 110016
9711397716

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