सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

"श्री अजीत पाटनी : सिर्फ नाम ही काफी था !"

"श्री अजीत पाटनी : सिर्फ नाम ही काफी था !"


मैं आज भी विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ कि श्री अजीत पाटनी अब इस दुनिया में नहीं हैं। दिगम्बर जैन समाज ने उनके चले जाने से एक जुझारू समर्पित समाजसेवी,पत्रकार खो दिया है। कोलकाता का नाम आये और  श्री अजीत पाटनी जी का स्मरण न हो ऐसा संभव ही नहीं था । मुझे दशलक्षणपर्व पर लगातार कई वर्षों तक कोलकाता के बड़े मंदिर में प्रवचन करने का अवसर प्राप्त हुआ था,उसी दौरान लगातार उनके साथ रहकर उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को करीब से जानने का अवसर भी मिला । मुझे आश्चर्य होता था कि वे बड़ी से बड़ी सामाजिक समस्या को चुटकियों में कैसे सुलझा देते थे ?
उन्हीं दिनों के बाद से उनसे मेरी अक्सर बातचीत होती ही रहती थी । जब मैंने प्राकृत भाषा में समाचार पत्र "पागद-भासा"प्रकाशित किया तो उन्होंने बहुत प्रोत्साहित किया ।मुझे पत्रकारिता का ज्यादा अनुभव न होने से इस कार्य में उन्होंने काफी सहयोग भी किया ।  जैनदर्शन से जुड़ी कोई भी जानकारी उन्हें चाहिए तो वे मुझसे अवश्य संपर्क करते थे । मैंने अनुभव किया कि वे व्यक्तिगत रूप से साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के नहीं थे । मेरे साथ वे कई बार बीसपंथ,तेरापंथ,मुमुक्षु,श्वेताम्बर तथा हिन्दू 
समाज के कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक गये और काफी उदार चर्चायें कीं। 
सामाजिक जीवन से भिन्न उनका एक आत्मिक संसार भी था जिसका आभास मुझे उस समय हुआ जब वे अक्सर मुझसे यह कहते थे कि पंडित जी ! मैं इन सामाजिक दायित्वों से ऊपर उठना चाहता हूँ , समाज की लगभग हर मीटिंग में मेरी उपस्थिति अनिवार्य सी मान ली गयी है , आखिर कब तक मैं इस व्यवहार धर्म में उलझा रहूँगा, इस मनुष्य भव में मुझे अपना कल्याण भी तो करना है ।' उनकी यही छटपटाहट उन्हें दिगम्बर मुनिराजों की सेवा में संलग्न रखती थी । पूज्य आचार्य वर्धमान सागर जी महाराज के पास उनके चाचा जी की जब दीक्षा हो रही थी तब वे इतने उत्साहित थे मानो स्वयं की दीक्षा हो रही हो । 
 किसी कारण से वे स्वयं दीक्षित नहीं हो पा रहे थे , तो जो जीव संयम के उत्कृष्ट मार्ग पर चल रहे हैं उनकी सेवा करके ,उनकी अनुमोदना करके वे अपने जीवन को सार्थक करने में लगे थे । 
श्रवणबेलगोला को मैं जैनों की काशी मानता हूँ,सल्लेखना समाधि के लिए इस तीर्थ का नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है । यह भी एक विचित्र संयोग है कि वे अपने अंतिम दिनों में इस तीर्थ पर ही रहे , श्री मठ के पास , भगवान बाहुबली के चरणों में कानजी स्वामी निलय में उन्होंने अंतिम साँसें लीं । आई सी यू आदि में वेन्टीलेटर आदि के साथ देहविसर्जन की अपेक्षा , इस तरह तीर्थ आदि में   कोई अंतिम श्वास ले तो इसे भी मैं उस जीव के पुण्य का ही फल मानता हूँ,और क्षेत्र मंगल की विवक्षा से उनकी इस तरह की अंतिम यात्रा को मांगलिक मरण कह सकता हूँ ।
उन्हें हर जन्म में आप्तागमतपोभृताम् का सान्निध्य प्राप्त हो ताकि वे तत्वज्ञानपूर्वक संयम धारण करके स्वानुभूति को प्राप्त कर अपना मूल लक्ष्य प्राप्त कर सकें । इन्हीं भावनाओं के साथ उन्हें अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि ।
-डॉ अनेकान्त कुमार जैन,जिन फाउंडेशन, नई दिल्ली 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वर्तमान में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य

                                                              वर्तमान में बढ़ते मंदिर और मूर्तियों का औचित्य                                                                        प्रो अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली जैन परंपरा में मंदिर और मूर्ति निर्माण का इतिहास बहुत पुराना है | खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख में कलिंग जिन की मूर्ति वापस लाने का उल्लेख है | वर्तमान में सबसे प्राचीन जैन मूर्ति पटना के लोहनीपुर स्थान से प्राप्त हुई है। यह मूर्ति मौर्यकाल   की है और पटना म्यूजियम में रखी हुई है। इसकी चमकदार पालिस अभी तक भी ज्यों की त्यों बनी है। लाहौर , मथुरा , लखनऊ , प्रयाग आदि के म्यूजियमों में भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं। श्री वासुदेव उपाध्याय ने लिखा है कि मथुरा में २४वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्त के समय में तैयार की गई थी। वास्तव में मथुरा में जैनमूर्ति कला की दृष्टि से भी बहुत काम हुआ है। श्री रायकृष्णदास ने लिखा है कि मथुरा की शुंगकालीन कला मुख्यत: जैन सम्प्रदाय की है। खण्डगिरि और उदयगिरि में ई. पू. १८८-३० तब क

आचार्य फूलचन्द्र जैन प्रेमी : व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व

 आचार्य फूलचन्द्र जैन प्रेमी  : व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व   (जन्मदिन के 75 वर्ष पूर्ण करने पर हीरक जयंती वर्ष पर विशेष ) #jainism #jainphilosophy #Jainscholar #Jain writer #jaindarshan #Philosophy #Prakrit language #Premiji #Prof Phoolchand jain ( विशेष निवेदन  : 1.प्रो प्रेमी जी की  इस जीवन यात्रा में  निश्चित ही आपका भी आत्मीय संपर्क इनके साथ रहा होगा ,आप चाहें तो उनके साथ आपके संस्मरण ,रोचक वाकिये,शुभकामनाएं और बधाई आप नीचे कॉमेंट बॉक्स में लिखकर पोस्ट कर सकते हैं | 2. इस लेख को पत्र पत्रिका अखबार वेबसाइट आदि प्रकाशन हेतु स्वतंत्र हैं । प्रकाशन के अनन्तर इसकी सूचना 9711397716 पर अवश्य देवें   - धन्यवाद ) प्राच्य विद्या एवं जैन जगत् के वरिष्ठ मनीषी श्रुत सेवी आदरणीय   प्रो.डॉ. फूलचन्द्र जैन प्रेमी जी श्रुत साधना की एक अनुकरणीय मिसाल हैं , जिनका पूरा जीवन मात्र और मात्र भारतीय प्राचीन विद्याओं , भाषाओँ , धर्मों , दर्शनों और संस्कृतियों को संरक्षित और संवर्धित करने में गुजरा है । काशी में रहते हुए आज वे अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष और विवाह के पचास वर्ष पूरे कर र

काशी के स्याद्वाद का स्वतंत्रता संग्राम

काशी के स्याद्वाद का स्वतंत्रता संग्राम प्रो अनेकांत कुमार जैन आचार्य – जैनदर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-16,Ph  ,9711397716 १९४२ में काशी के भदैनी क्षेत्र में गंगा के मनमोहक तट जैन घाट पर स्थित स्याद्वाद महाविद्यालय और उसका छात्रावास आजादी की लड़ाई में अगस्त क्रांति का गढ़ बन चुका था |  जब काशी विद्यापीठ पूर्ण रूप से बंद कर दिया गया , काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रावास जबरन खाली करवा दिया गया और आन्दोलन नेतृत्त्व विहीन हो गया तब आन्दोलन की बुझती हुई लौ को जलाने का काम इसी स्याद्वाद महाविद्यालय के जैन छात्रावास ने किया था | उन दिनों यहाँ के जैन विद्यार्थियों ने पूरे बनारस के संस्कृत छोटी बड़ी पाठशालाओं ,विद्यालयों और महाविद्यालयों में जा जा कर उन्हें जगाने का कार्य किया ,हड़ताल के लिए उकसाया ,पर्चे बांटे और जुलूस निकाले |यहाँ के एक विद्यार्थी दयाचंद जैन वापस नहीं लौटे , पुलिस उन्हें खोज रही थी अतः खबर उड़ा दी गई कि उन्हें गोली मार दी गई है,बी एच यू में उनके लिए शोक प्रस्ताव भी पास हो गया | उन्हें जीवित अवस्था में ही अमर शहीद ह