Prof Anekant Jain's E-articles and Books 1.An-experiment-with-anekantavada by Anekant Jain: https://jainavenue.org/an-experiment-with-anekantavada/ 2.Depth-of-non-violence-and-peace by Anekant Jain https://jainavenue.org/depth-of-non-violence-and-peace/ 3. Dasdhammasaro by Anekant Jain https://jainmandir.org/library/Home/BookDetail?bookId=064065fd-62b3-4ff4-9335-805d652f7a67 4. Acharya Kundkund ka darshnik Vaibhava by Anekant Jain: https://jainworld.jainworld.com/JWHindi/Books/acharya-kundkund-ka-darshanik-vaibhav-hin-1151.pdf 5. Book by Anekant Jain: https://epustakalay.com/writer/47791-anekant-kumar-jain/ 6.Kutubminar and Jain temples by Anekant Jain: https://drive.google.com/file/d/1ImDVGdrPms74U1d9JIr0ivqaYPtYOiL4/view?usp=sharing
ये तो पुराण में लिखा है , धवला आदि सिद्धांत ग्रंथों में भी है । आगम प्रमाण होने से यह मिथ्यात्व तो नहीं है । हाँ ,सावद्य जरूर है । यहाँ प्रमाण से ज्यादा विवेक की आवश्यकता है । चीजें बदलती भी हैं । पहले भी ये क्रियाएं नियमित नहीं होती थीं , आवश्यकता के अनुसार वर्ष या मास में करने का विधान था । दक्षिण में काष्ठ की प्रतिमाएं होती थीं ,उन्हें मजबूत रखने के लिए स्निग्धता के लिए शुद्ध दूध ,दही ,घी आदि से कभी कभी अभिषेक की आवश्यकता पड़ती थी । वर्तमान में जल भी शुद्ध मिलना कठिन है तो फिर ये पदार्थ तो और भी दुर्लभ हैं । फिर इनका अतिरेक होने लगा और शुद्धता भी सुनिश्चित नहीं होने से तेरापंथ ने इनका कड़ाई से निषेध किया । अतः धर्म की किसी भी क्रिया में सावद्य लेश और बहु पुण्य राशि का विधान है , छूट है न कि सावद्य बहु और लघु पुण्य राशि का अतः जो विवेक पूर्वक धर्म क्रिया करते हैं वे विचार करते हैं कि हम पुण्य के लिए कर रहे हैं और पाप बांध रहे हैं अतः यह उचित नहीं इसलिए वे सचित्त फूल आदि का प्रयोग नहीं करते । पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी यह उचित प्रतीत होता है ।अन्यथा अन्य अजैन परंपरा में भी